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Hindi Books, Prabhat Prakashan, कहानियां
Dadi Amma Kahen Kahani
ईश्वर ने अभी-अभी इस पृथ्वी की रचना की थी। उन्होंने एक कदम पीछे हटकर उसे मुग्ध होकर देखा। उन्होंने मनुष्यों, जानवरों, पेड़-पौधों व समुद्रों की रचना की थी और वह रहने के लिए एक अद्भुत स्थान लगता था। परंतु किसी चीज की कमी थी। कुछ देर सोचने के बाद उन्होंने छह भाइयों—दिन, रात, गरमी, सर्दी, बारिश और वायु—को बुलाया। उन्होंने छह भाइयों से नीचे धरती पर जाने और वहाँ के प्राणियों को एक सुखद व समृद्ध जीवन जीने में मदद करने का निर्देश दिया—‘तुम्हें पृथ्वी पर रहनेवाले प्राणियों के लिए आहार उपजाने में उनकी मदद करनी होगी, ताकि वे आनंदपूर्वक रह सकें। मैंने समय को दो
प्रख्यात लेखिका सुधा मूर्ति की दादी की भूमिका से उपजी ये कहानियाँ बच्चों, माता-पिता, दादा-दादी—यानी तीन पीढ़ियों के आपसी संबंधों को समझाती हैं; परिवार को प्यार के बंधन में बाँधने का काम करती हैं और बालपन के पंख लगाकर आसमान छूने को प्रेरित करती हैं।
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Rajpal and Sons, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण
Dashdwar Se Sopan Tak
प्रख्यात हिन्दी कवि हरिवंशराय ‘बच्चन’ की आत्मकथा का पहला खंड, ‘‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ’’, जब 1969 में प्रकाशित हुआ तब हिन्दी साहित्य में मानो हलचल-सी मच गई। यह हलचल 1935 में प्रकाशित ‘‘मधुशाला’’ से किसी भी प्रकार कम नहीं थी। अनेक समकालीन लेखकों ने इसे हिन्दी के इतिहास की ऐसी पहली घटना बताया जब अपने बारे में इतनी बेबाक़ी से सब कुछ कह देने का साहस किसी ने दिखाया। इसके बाद आत्मकथा के आगामी खंडों की बेताबी से प्रतीक्षा की जाने लगी और उन सभी का ज़ोरदार स्वागत होता रहा। प्रथम खंड ‘‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ’’ के बाद ‘‘नीड़ का निर्माण फिर’’, ‘‘बसेरे से दूर’’ और ‘‘‘दशद्वार’ से ‘सोपान’ तक’’ लगभग पंद्रह वर्षों में इसके चार खंड प्रकाशित हुए। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
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Prabhat Prakashan, इतिहास, धार्मिक पात्र एवं उपन्यास
Deeksha
“मैंने आपसे अपने शिष्य को दीक्षा देने का अनुरोध किया था।” “किसको दीक्षा?” “जिसको आपने शिक्षा दी है, एकलव्य को।” “उसको मैंने शिक्षा नहीं दी है।” आचार्य ने बड़ी रुक्षता से कहा, “उसे तो मेरे मूर्ति ने शिक्षा दी है। एकलव्य को यदि दीक्षा लेनी है तो उसी मूर्ति से ले।” अब तो हिरण्यधनु के रक्त में उबाल आ गया। वह भभक पड़ा, “आपने शिक्षा नहीं दी थी तो आप गुरुदक्षिणा लेनेवाले कौन थे?” उसने बड़े आवेश में एकलव्य का दाहिना हाथ उठाकर दिखाते हुए पूछा, “इस अँगूठे को किसने कटवाया था?” “बड़े दुर्विनीत मालूम होते हो जी। तुम हस्तिनापुर के आचार्य से जबान लड़ाते हो! तुम्हें लज्जा नहीं आती?” “लज्जा तो उस आचार्य को आनी चाहिए थी जिसने गुरुदक्षिणा ले ली, पर दीक्षा देने से मुकर गया।” अब हिरण्यधनु पूरे आवेश में था, “क्या यही उसकी नैतिकता है? क्या यही आचार्य-धर्म है?” “अब बहुत हो चुका, हिरण्यधनु! अपनी जिह्वा पर नियंत्रण करो। मैं तुम्हें दुर्विनीत ही समझता था, पर तुम दुर्मुख भी हो।”
“सत्य दुर्मुख नहीं होता, आचार्य, कटु भले ही हो। पर आप उस भविष्य की ओर देखिए जो आप जैसे आचार्य की ‘करनी’ के फलस्वरूप अपने संतप्त उत्तरीय में हस्तिनापुर का महाविनाश छिपाए है। आपकी ‘करनी’ का ही परिणाम है कि आप सब एक ज्वालामुखी पर खड़े हैं!” वनराज के इतना कहते-कहते ही एकलव्य ने अपने पिता के मुख पर हाथ रखा और उन्हें बलात् बाहर की ओर ले चला। —इसी पुस्तक सेSKU: n/a -
Hindi Books, Prabhat Prakashan, इतिहास, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण
Deendayal Upadhyay Sampoorna Vangmaya (Set 15 Vol.)
-10%Hindi Books, Prabhat Prakashan, इतिहास, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरणDeendayal Upadhyay Sampoorna Vangmaya (Set 15 Vol.)
एकात्म मानवदर्शन अनुसंधान एवं विकास प्रतिष्ठान
क्या बाजारवाद (पूँजीवाद) तथा राज्यवाद (साम्यवाद) विचारधाराएँ आधुनिक मानव को भीतरी सुख दिला सकती हैं? क्या इस देश के करोड़ों लोग पश्चिमी अवधारणाओं के अनुसार ही जीवन जीने को अभिशप्त हैं? क्या भारत की प्रजा के पास इसका कोई समाधान नहीं है? भारत के एक युगऋषि पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने इन सवालों, इन खतरों को दशकों पहले ही भाँप लिया था और भारतीय परंपराओं के खजाने में ही इनके उत्तर भी खोज लिये थे। उन्होंने व्यष्टि बनाम समष्टि के पाश्चात्य समीकरण को अमानवीय बताया था तथा व्यष्टि एवं समष्टि की एकात्मता से ही मानव की पहचान की थी। उन्होंने इस पहचान के लिए ‘एकात्म मानवदर्शन’ के रूप में एक दार्शनिक व्याख्या प्रस्तुत की थी।
पर विडंबना, उनकी यह खोज, उनका यह दर्शन आगे न बढ़ सका। प्रयास कुछ अधूरे रहे। दोष शायद परिस्थितियों का रहा। लेकिन इस शताब्दी के प्रारंभ में कुछ सामाजिक व अकादमिक कार्यकर्ताओं ने इस धारा को आगे बढ़ाने का संकल्प लिया। इस समूह का अनुभव रहा कि गहन अनुसंधान एवं व्यावहारिक परियोजनाओं का सूत्रपात करने से ही इसे आगे बढ़ाया जा सकता है। उसी विचार व अनुभव में से उत्पत्ति हुई ‘एकात्म मानवदर्शन अनुसंधान एवं विकास प्रतिष्ठान’ की। इसके विभिन्न आयामों व पहलुओं पर नियमित परिचर्चाओं व प्रकाशनों के माध्यम से जो वातावरण बना, उसके परिणाम सामने आने लगे हैं। ‘एकात्म मानवदर्शन’ देश में वैचारिक बहस की मुख्यधारा का अहम हिस्सा बन गया है। प्रतिष्ठान के सामने अब लक्ष्य है, उसे वैश्विक स्तर पर ले जाने का।SKU: n/a -
Rajpal and Sons, कहानियां
Deepgeet
महादेवी वर्मा का जन्म 26 मार्च, 1907 को उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा मिशन स्कूल इंदौर में हुई। 22 वर्ष की उम्र में महादेवी जी बौद्ध-दीक्षा लेकर भिक्षुणी बनना चाहती थीं लेकिन महात्मा गांधी से संपर्क होने के बाद अपना निर्णय बदलकर वह समाज सेवा में लग गईं। नारी-शिक्षा प्रसार के उद्देश्य से उन्होंने प्रयाग महिला विद्यापीठ की स्थापना की और प्रधानाचार्य के पद की बागडोर संभाली। महादेवी जी की पहचान एक उच्च कोटि की हिन्दी कवयित्री, स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षा-शास्त्री और महिला ‘एक्टिविस्ट’ की थी। उन्हें 1969 में साहित्य अकादमी फैलोशिप, 1982 में ज्ञानपीठ पुरस्कार और 1988 में पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया। महीयसी महादेवी की संपूर्ण काव्य-यात्रा न सिर्फ आधुनिक हिन्दी कविता का इतिहास बनने की साक्षी है, भारतीय मनीषा की महिमा का भी वह जीवन्त प्रतीक है। उनकी कविताएं हिन्दी साहित्य की एक सार्थक कालजयी उपलब्धि हैं। छायावाद की इस कवयित्री की हिन्दी साहित्य में अपनी एक अनूठी पहचान है। ‘दीप’ महादेवी जी का प्रिय प्रतीक था। अंधेरे में आलोक को नए-नए अर्थ देतीं दीपगीत की कविताएं मानवीय करुणा को रेखांकित करती हैं।
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Hindi Books, Prabhat Prakashan, राजनीति, पत्रकारिता और समाजशास्त्र
Democracy Ka Chautha Khamba
पता नहीं किस भले आदमी ने बता दिया कि डेमोक्रेसी के तीन खंभे होते हैं—न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका! तीन खंभों पर कभी कोई इमारत टिकी है जो डेमोक्रेसी टिकेगी? गनीमत समझो कि अपने देश में डेमोक्रेसी का एक चौथा खंभा ‘धर्मपालिका’ का भी है। अगर यह न होता तो डेमोक्रेसी का कब का सत्यानाश हो जाता। यह खंभा है तो अदृश्य, मगर बीच-बीच में धूम-धड़ाके से दिखता रहता है। डेमोक्रेसी के सारे फालोअर और ऑब्जर्वर मजबूती से इसे थामे रहते हैं। कुछ इसके साथ ‘यूज एंड थ्रो’ का संबंध रखते हैं तो कुछ ‘कैच एंड यूज’ का। मल्टीपरपज यूटीलिटी है इस खंभे की। जब जैसा दाँव लगा, वैसा इस्तेमाल कर लिया। यह खंभा जन-जन (सच्ची बोले तो वोटर) की हृदय-स्थली में मजबूती से गड़ा है, तभी गाहे-बगाहे बाकी तीनों खंभों की चूलें हिलाता रहता है। देश का शायद ही कोई ऐसा खंभा हो, जो इस खंभे के आगे नतमस्तक न हुआ हो। चाहे खुशी से या मजबूरी में, मगर दंडवत् सभी ने की है।
—इसी संग्रह सेSKU: n/a -
Literature & Fiction, Vani Prakashan
Desh Ke Hit Mein
नरेन्द्र कोहली
‘‘सत्य महाराज।’’ ललित ने हाथ जोड़ दिए, ‘‘किन्तुु क्या सरकार जानती है कि उसके जीवन के मूल में एक वोटर है और वह किसी भी दिन उसे छोड़ देगा; और सरकार के प्राण निकल जाएँगे।’’ ‘‘वोटर सरकार का शरीर बनाता है, सरकार की आत्मा तो उसका अंग्रेजों के द्वारा बनाया गया कार्यालय-तंत्रा है। वह शाश्वत है। वोटर उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता।’’ ‘‘किन्तुु सरकार का शरीर भी तो मरेगा, उसकी पेंशन का क्या होगा?’’ ललित ने कहा। ‘‘मंत्रियों और सांसदों को पेंशन मिलेगी। उस पेंशन के अनेक रूप हैं, हरि के अनेक रूपों के समान। आप जैसे हरि को नहीं समझ सकते, वैसे ही सरकार को भी नहीं समझ सकते।’’ वे रुके, ‘‘अच्छा, अब इस चर्चा को छोड़िए और अपने जीवित होने के प्रमाण का नहीं, प्रमाणपत्रा का प्रबन्ध कीजिए।’’ आगन्तुकों को विदा कर ललित अपने मुहल्ले के पार्षद के पास पहुँचा, ‘‘देखिए, मैं जीवित हूँ।’’ ‘‘देख रहा हूँ।’’ ‘‘तो मुझे मेरे जीवित होने का एक प्रमाणपत्रा दे दीजिए।’’ ‘‘आप जीवित हैं तो फिर प्रमाणपत्रा की क्या आवश्यकता है? आपका जीवन ही आपका सबसे बड़ा प्रमाण है।’’ ‘‘देखिए, हमारे देश में एक सरकार है। उसके कार्यालय में एक फाइल है। वह फाइल मुझे वेतन देती है। उस फाइल को मेरे जीवित होने का एक प्रमाणपत्रा चाहिए, नहीं तो वह मेरा वेतन बन्द कर देगी। वह फाइल मुझे नहीं पहचानती, केवल प्रमाणपत्रा को पहचानती है। प्रमाणपत्रा के बिना तो स्वामी विवेकानन्द भी अमरीका में नहीं पहचाने गये थे।’’ ‘‘आप महान हैं; स्वामी विवेकानन्द के समान महान हैं। उनके पास भी प्रमाणपत्रा नहीं था और आपके पास भी नहीं है।’’ वह बोला, ‘‘उन्हें प्रो. हेनरी जॉन राइट ने एक प्रमाणपत्रा दिया था। आप भी प्रो. हेनरी जॉन राइट के पास चले जाइए, वे आपको भी प्रमाणपत्रा दे देंगे। उनसे कम का कोई प्रमाणपत्रा आपको शोभा भी नहीं देता।’’ ‘‘पर हमारी सरकारी फाइलें क्या प्रो. हेनरी जॉन राइट को पहचान लेंगी?’’ ‘‘क्यों नहीं, हेनरी जॉन राइट पहले अपने जीवित होने का प्रमाणपत्रा प्रस्तुत करें।’’ और ललित प्रो. हेनरी जॉन राइट की खोज में निकल पड़ा… (पुस्तक अंश)
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Hindi Books, Prabhat Prakashan, इतिहास, राजनीति, पत्रकारिता और समाजशास्त्र
Desh, Samaj aur Sanskriti
-10%Hindi Books, Prabhat Prakashan, इतिहास, राजनीति, पत्रकारिता और समाजशास्त्रDesh, Samaj aur Sanskriti
चंदर सोनाने की इस पुस्तक के लेख अखबार में लिखे गए नियमित स्तंभ का हिस्सा रहे हैं। अखबार के लिए नियमित लिखना एक कठिन और चुनौती भरा काम है। नित नया और विचारोत्तजक लिखना दायित्व और विवशता दोनों हैं। चंदर सोनाने ने इसके लिए बहुत श्रम किया है। अपने लेखन को रोचक बनाने के साथ ही चंदर ने उसे सामाजिक सरोकारों से भी जोड़ा है, चाहे वे स्थानीय मुद्दे हों या अखिल भारतीय या विश्व समाज के, उन्हें उसी दायित्व-बोध के साथ सहजता से लिखा है।
चंदर के ये लेख महज एक शहर या देश के बदलाव के संकेत नहीं हैं, बल्कि साथ ही मीडिया और उसकी भाषा के बदलाव पर भी परोक्ष केंद्रित होते हैं। समाज में जिस तरह के बदलाव आ रहे हैं, सूचना और संचार माध्यम उसे किस तरह प्रभावित कर रहे हैं; साथ ही इन सबके नकारात्मक प्रभाव की समझ के साथ ये लेख अपने समय और समाज को कुछ इस तरह प्रस्तुत करते हैं कि उसके सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक विश्लेषणों की जरूरत पर स्पेस भी बनाते हैं।
इन लेखों में स्थानीयता की झलक के साथ समूचे सामाजिक, सांस्कृतिक, और राजनीतिक परिवेश की विसंगतियों की झलक भी है।SKU: n/a -
Rajasthani Granthagar, इतिहास, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण
Deshbhakt Durgadas Rathore
देशभक्त दुर्गादास राठौड़ : मारवाड़ के शौर्यपुत्र दुर्गादास राठौड़ में अनेकानेक गुणों का समावेश था। निर्भिकता, स्वामिभक्ति, त्याग, निर्लोभ भावना, सत्यता, सहिष्णुता, शीघ्र निर्णय, संगठन, वीरता सर्वस्व न्यौछावर भावना, धर्मरक्षण, शरणागतत्सलता, स्वाभिमान एवं राष्ट्रीयता के साथ उच्च चरित्र एवं निष्काम भावना जैसे अनेक प्रण उसके सामने थे और किसी रियासत का राजा न होकर एक साधारण सामन्त के नाते दुर्गादास राठौड़ ने अपने जीवन में इन सभी गुणों को एक साथ निभाया, यही उसके चरित्र की विशेषता रही है। राजस्थान की भूमि वीर-प्रसविनी वसुन्धरा रही है जिसमें मरुधरा का विशेष महत्व है। इसी तरह दुर्गादास राठौड़ का औरंगजेब के खिलाफ किया गया दीर्घकालन संघर्ष उसे चरित्र का एक गौरपूर्ण अध्याय है।
औरंगजेब के अत्याचारों की कहानी से जनमानस संतप्त था,उस समय उसकी महान शक्ति से टक्कर लेकर भारतीय लोक जीवन केमनोबल को बनाये रखने में वीर दुर्गादास का तीस वर्षों का लम्बा संघर्ष अपने आप में एक आदर्श है। यह संघर्ष सत्ता हथियाने के लिए प्राणोत्सर्ग करने का संकल्प नहीं था वरन् अत्याचार के विरुद्ध अपने स्वत्व और स्वाभिमान की रक्षा करने के लिए अनुपम अनुष्ठान था। वीर दुर्गादास राठौड़ का एक महत्तम शक्ति सम्पन्न बादशाह के खिलाफ किया गया दीर्घकालीन संघर्ष निष्काम भावना से मात्र प्रण-पालनार्थ राठौड़ की विजय ही नहीं हुई अपितु मुगल वंश की साम्राज्य सत्ता का ही पराभव प्रारम्भ हो गया था। इस दृष्टि से यह ग्रन्थ एक स्तुत्य प्रयास है। वास्तव में यह ग्रन्थ आज के राजनीतिज्ञों एवं कल की भावी सन्तान के लिए पठन एवं मनन योग्य है।SKU: n/a -
Hindi Books, Rajasthani Granthagar, इतिहास
Deshpremi Maharaj Kumar Girdharsingh Bhati Jaisalmer
देशप्रेमी महाराज कुमार गिरधरसिंह भाटी जैसलमेर : महान भाटी राज्य जैसलमेर के अंतिम महारावल देशपे्रमी गिरधरसिंह का जन्म 13 नवम्बर, 1907 को महारावल जवाहरसिंह के ज्येष्ठ पुत्र के रूप में हुआ। गिरधरसिंह की माता रानी लक्ष्मी कंवर लूणार ठिकाने के सोढ़ा सोहनसिंह की पुत्री थी। 17 फरवरी, 1949 को महारावल जवाहरसिंह के आकस्मिक निधन के बाद आप जैसलमेर राज्य के शासक बने। इस समय नई दिल्ली में सरदार पटेल के नेतृत्व में राजपूताने की चार बड़ी रियासतों के राजस्थान में विलय के प्रयास चल रहे थे। वी.पी. मेनन जैसलमेर रियासत को केन्द्र शासित प्रदेश बनाना चाहते थे, किंतु महारावल गिरधरसिंह के साथ-साथ जैसलमेर रियासत की जनता ने भी इसे पसंद नहीं किया। अंत में भारत सरकार तथा जयपुर, जोधपुर, बीकानेर और जैसलमेर रियासत के मध्य हुए समझौते के बाद ये रियासतें 30 मार्च, 1949 को राजस्थान में सम्मिलित हुई। इस हेतु भारत सरकार तथा इन चारों रियासतों के मध्य सम्पन्न हुए काॅवनेन्ट पर देशप्रेमी गिरधरसिंह ने ही जैसलमेर राज्य के स्टेट आॅफ राजस्थान में विलीनीकरण हेतु हस्ताक्षर किये थे। 27 अगस्त, 1950 को आपका देहान्त हुआ।
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Hindi Books, Prabhat Prakashan, इतिहास
Dhakadvani
समसामयिक विषयों पर रचित इन आलेखों में समाज की विभिन्न गतिविधियों एवं परिस्थितियों का प्रतिबिंब बखूबी झलकता है। ये रचनाएँ विविध सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक और पारिवारिक अभिव्यंजनाओं के मानदंड को अभिव्यक्त करती हैं। इन आलेखों को सारगर्भित परंतु सरल भाषा में सँजोया गया है। लेखक ने अपनी बात ‘धाकड़’ तरीके से कही है और सभी रचनाएँ बेमिसाल हैं। इस ‘धाकड़वाणी’ में वह सबकुछ है, जो एक आला दरजे की पुस्तक के लिए जरूरी होता है। यह पुस्तक पाठकों को चिंतन, संवेदना, कटाक्ष के साथ-साथ व्यंग्य की तीक्ष्ण धार एवं समाज की जीवन-झाँकी से अवश्य रूबरू कराएगी।
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Govindram Hasanand Prakashan, अध्यात्म की अन्य पुस्तकें, धार्मिक पात्र एवं उपन्यास
Dharam ka Yatharth Swaroop
Govindram Hasanand Prakashan, अध्यात्म की अन्य पुस्तकें, धार्मिक पात्र एवं उपन्यासDharam ka Yatharth Swaroop
भारतवर्ष मंे आज भी धार्मिक एवं जातिगत मतभेद विकट रूप में विद्यमान हैं। उपर्युक्त परिस्थितियों को सुनकर और देखकर लेखक के हृदय में एक विचार प्रस्फुटित हुआ कि क्यों न एक ऐसी पुस्तक का निर्माण किया जाए, जिसमें विभिन्न पन्थों के मूल सिद्धान्तों का परिचय और उसका उद्देश्य समाहित हो।
अतः चार महीने का अवकाश लेकर लेखक ने विभिन्न सम्प्रदायों की लगभग दो सौ पचास पुस्तकों का अध्ययन किया और उन विषयों के अधिकारिक विद्वानों से परस्पर विचार-विमर्श भी किया। तदुपरान्त यह समझ में आया कि सभी पन्थ अपने मूलरूप में परस्पर अत्यधिक साम्यता रखते हैं। सभी के मार्ग भले ही क्यों न पृथक्-पृथक् हों परन्तु सभी का लक्ष्य एक ही है।
ऋग्वेद के अनुसार ‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति‘। अर्थात् सत्य एक ही है, जिसे विद्वान् विभिन्न प्रकार से व्याख्यायित करते हैं।
प्रस्तुत पुस्तक में विभिन्न सम्प्रदायों के मूल सिद्धान्तों का उसी रूप में वर्णन किया गया है जिस रूप में वे सिद्धान्त उस पन्थ में विद्यमान हैं। निष्कर्ष में सभी पन्थों के सिद्धान्तों में विद्यमान पारस्परिक साम्यता का विवेचन किया गया है। आशा है कि जेखक का यह छोटा-सा प्रयास समाज में धर्म के नाम पर फैले अंधविश्वासों तथा वैमनस्य को दूर करेगा तथा भिन्न-भिन्न पन्थों के अनुयायियों के मध्य सौहार्द, परस्पर प्रेम को उत्पन्न करने में अपना सहयोग प्रदान करेगा और महिलाओं का यथोचित सम्मान एवं गरिमा प्रदान करने के लिए इस विकसित समाज को प्रेरित करेगा।SKU: n/a -
Rajpal and Sons, ऐतिहासिक उपन्यास
Dharmaputra | धर्मपुत्र
धर्मपुत्र मनुष्य की अस्मिता के बारे में मूल प्रश्न उठाता है-क्या किसी इंसान का अस्तित्व इस बात पर निर्भर है कि वह किस परिवार में जन्मा या उसे किस प्रकार की शिक्षा संस्कार दिए गए या फिर इंसान की अस्मिता धर्म, शिक्षा और संस्कारों से परे इंसानियत से जुड़े जीवन-मूल्यों से है। यह कहानी है हिन्दू और मुसलमान परिवार की जिनका आपस में प्रेम भरा संबंध है। मुस्लिम परिवार की जवान लड़की की नाजायज़ औलाद को हिन्दू परिवार अपना लेता है और हिन्दू संस्कारों से उसका पालन-पोषण करता है। जवान होते-होते यह लड़का कट्टर हिन्दू बन जाता है और उसकी धारणा है कि मुसलमानों को भारत छोड़ देना चाहिए। इसी दौरान उसे अपनी जन्म देने वाली मां की सच्चाई का पता चलता है। मां और बेटे के आपसी संबंध होने के बावजूद वे नदी के दो अलग-अलग किनारों की तरह खड़े हैं और बीच में घृणा और अविश्वास की सुलगती नदी बह रही है। मशहूर फ़िल्म-निर्माता यश चोपड़ा ने 1961 में इस उपन्यास पर इसी नाम से फ़िल्म बनाई थी जो बहुत ही लोकप्रिय हुई थी।
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Hindi Books, Prabhat Prakashan, धार्मिक पात्र एवं उपन्यास
Dharmashastra aur Jatiyon ka Sach
भारत की आर्ष-परंपरा के बारे में औपनिवेशिक काल से लेकर अब तक एक विशेष विचार का सृजन एवं पोषण किया गया है, जिसके अनुसार भारतीय समाज हजारों सालों से विभिन्न जातियों में बँटा हुआ था और ये जातियाँ एक-दूसरे को घृणा तथा हेयदृष्टि से देखती थीं। इसका कारण यह बताया गया कि ‘मनुस्मृति’ जैसी रचनाओं के कारण ही भारत में जाति प्रथा का सृजन हुआ और ऐसी रचनाओं के प्रभाव एवं दबाव के कारण ही आज तक भारत में जातियाँ प्रचलन में हैं।
अंग्रेजों को जातियों को कलुषित करने से कई लाभ थे। वे भारतीय समाज को विखंडित कर सकते थे। दूसरे, भारतीय सृजन-परंपरा के मूल स्वरूप को ही भ्रष्ट कर सकते थे। यह वैचारिक स्थिति स्वतंत्रता तक आते-आते इतनी प्रबल हो गई कि स्वतंत्रता के बाद भी भारत के ऐतिहासिक लेखन एवं समाजशास्त्रीय लेखन ने औपनिवेशिक चर्चा को ही आदर्श मान उसका अंधानुकरण किया और ‘मूल रचनाओं एवं कृतियों’ तथा वास्तविक अवस्था का सांगोपांग अध्ययन करना आवश्यक ही नहीं समझा।
प्रस्तुत पुस्तक में प्राचीन भारतीय मामलों के विद्वानों के एकपक्षीय और मनपसंद विषय, मनु के सिद्धांतों पर वैकल्पिक विचार प्रस्तुत करने का गंभीर प्रयास किया गया है और यह भी स्पष्ट किया गया है कि कैसे अंग्रेज विद्वानों ने धर्म को कानून तथा धर्मशास्त्र के ग्रंथों को हिंदुओं का कानून बना दिया; और कैसे यह विचार-परंपरा अभी भी बलवान है।SKU: n/a -
Hindi Books, Prabhat Prakashan, इतिहास, कहानियां
Dhoop-Chhanva
अटूट रिश्ता—क्षमा कीजिए पिताजी, जिस घर में प्रवेश के लिए मेरे पति जीवन भर तड़पते रहे, उस घर में प्रवेश के लिए मेरे कदम नहीं उठ सकते।
प्रेम-दीवानी—थैंक्स विनी, पर मुझे इसकी कीमत नहीं चाहिए। पेड़ों से झरी इन पत्तियों को मैंने एक नया रूप दिया है, मेरा यही पुरस्कार है। मारिया ने कहा।
धूप-छाँव—ब्रोकेन फैमिली का दर्द झेलता धूप-छाँव का जैकी और अकस्मात् का रिचर्ड, क्या किसी का प्यार उन्हें खुशी देता है?
चाहत की आहट और प्यार की सजा—मनोरंजक कहानियाँ हैं, नायिका अपनी मजेदार बातों से अपनी चाहत को अपना प्रेमी बनने को कैसे विवश कर देती हैं।
क्रिसमस की एक रात—अतुल के क्षमा माँगने पर भी पूजा क्यों उसे दंडित कराने का निर्णय लेती है।
प्यार के रंग—अमेरिका गई गीता रोनाल्ड के प्यार के शब्दों से मोहाविष्ट है। देव और रोनाल्ड के प्रेम के बीच गीता किसे चुनेगी?
इंतजार—कैंसरग्रस्त इरा का अमर के नाम अंतिम पत्र।
अकस्मात्—कहानी में रिचर्ड ने क्यों कहा, राम और सीता की न सही, रिचर्ड और मीता की जोड़ी खूब जमेगी। जॉन की गिफ्ट—दो नन्हे भाई-बहनों के प्यार की कहानी, जो आँखें नम कर देंगी।
मानसी इन वंडरलैंड—काली बिल्ली, अजायब घर का नमूना कहकर जेम्स जिस मानसी का उपहास करता था, क्यों उसी काली बिल्ली के साथ प्यार कर बैठता है?—इसी पुस्तक से संग्रह की विविध विषयक चौदह इंद्रधनुषी कहानियाँ कहीं पाठकों को प्रेम-रस में सरोबार कर मुग्ध करती हैं तो कभी जीवन के सच से परिचित कराती हैं। जीवन के विविध राग रोचक कहानियों की वस्तु बनते हैं। पुष्पा जी की कहानियाँ अचानक किसी घटना, कोई मन को छूनेवाली बात, किसी का साथ या किसी दृश्य आदि से प्रभावत होने पर लिखी गई प्रतीत होती हैं। इन कहानियों में परिवेश का महत्त्व स्पष्ट दिखाई देता है। कहानियों के परिचित परिवेश में पात्र सजीव नजर आते हैं।
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Vani Prakashan, अन्य कथेतर साहित्य, कहानियां, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण
Dhundh Se Uthati Dhun
‘धुन्ध से उठती धुन’ एक ऐसे ही ‘समग्र, समरसी गद्य’ का जीवन्त दस्तावेज़ है, निर्मल वर्मा के ‘मन की अन्तःप्रक्रियाओं’ का चलता-फिरता रिपोर्ताज, जिसमें पिछले वर्षों के दौरान लिखी डायरियों के अंश, यात्रा-वृत्त, पढ़ी हुई पुस्तकों की स्मृतियाँ और स्मृति की खिड़की से देखी दुनिया एक साथ पुनर्जीवित हो उठते हैं। एक तरफ़ जहाँ यह पुस्तक उस ‘धुन्ध’ को भेदने का प्रयास है, जो निर्मल वर्मा की कहानियों के बाहर छाई रहती है, वहीं दूसरी तरफ़ यह उस ‘धुन’ को पकड़ने की कोशिश है, जो उनके गद्य के भीतर एक अन्तर्निहित लय की तरह प्रवाहित होती है।/
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Osho Media International, ओशो साहित्य
Dhyan Darshan
‘ध्या्न दर्शन’ एक छोटी सी पुस्तक है जो साधना-पथ का मूल आधार बन सकती है। ओशो कहते हैं: जीवन के दो आयाम हैं—पहले जानना, फिर करना, जिसे हम विज्ञान का नाम देते हैं। दूसरा आयाम है—पहले करना, फिर जानना, जिसे हम धर्म का नाम देते हैं। पुस्तक के कुछ मुख्य विषय-बिंदु: डाइनैमिक ध्यान-प्रयोग की उपयोगिता ध्यान: आध्यात्मिक विज्ञान ध्यान से स्वास्थ्य का क्या संबंध है? कैथार्सिस, रेचन और आपका स्वास्थ्य साउंड थेरेपी, ध्वनि-चिकित्सा और आपका स्वास्थ्य संकल्प का मूल्य
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Osho Media International, ओशो साहित्य
DHYAN KE KAMAL
प्रस्तुत पुस्तक के प्रवचनों के माध्यम से हम ध्यान की जिस भावदशा में प्रविष्ट हो सकते हैं उसकी पूर्व तैयारी के लिए ओशो हमें ध्यान के कुछ ऐसे प्रयोगों में उतारते हैं जिन्हें करने के पश्चात हम विश्रांति की झील बन जाते हैं और प्रतीक्षा करते हैं चेतना के कमल के खिलने की। कहीं पर ओशो ने समर्पण के लिए भी संकल्प के प्रयोग की चर्चा की है तो कहीं कीर्तन का उपयोग रेचन के लिए किया है। शरीर से तादात्म्य तोड़ने के छोटे-छोटे प्रयोग हैं जिनमें सबसे अधिक बल उन्होंने श्वास पर दिया है। वे कहते हैं कि श्वास पर जोर देने पर शरीर में छिपा हुआ विद्युत-स्रोत सजग हो उठता है। और शरीर मिट्टी-मांस-मज्जा का नहीं वरन विद्युत किरणों से निर्मित है और यह बायो-एनर्जी, जीव-ऊर्जा ईंधन का काम करती है और ध्यान की कुंजी हाथ लगती है—ध्यानं निर्विषयं मन:।
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Osho Media International, ओशो साहित्य
DHYANYOGA: PRATHAM AUR ANTIM MUKTI
Dhyanyog: Pratham Aur Antim Mukti – ध्यानयोग: प्रथम और अंतिम मुक्ति
इक्कीसवीं सदी का जीवन जितनी तेज गति से भाग रहा है उतनी ही तेज गति से व्यक्ति के लिए तनाव बढ़ता जा रहा है। शांत बैठकर ध्यान में उतर जाना अब उतना सरल नहीं है जितना कि बुद्ध के समय में था।
ध्यानयोग: प्रथम और अंतिम मुक्ति ओशो द्वारा सृजित अनेक ध्यान विधियों का विस्तृत व प्रायोगिक विवरण है, विशेषतः ओशो सक्रिय ध्यान विधियों व ओशो मेडिटेटिव थेरेपीज़ का, जो कि आधुनिक जीवन के तनावों से सीधे निपटती हैं व हमें ताजा व ऊर्जावान कर जाती हैं। ओशो बहुत सी प्राचीन विधियों की भी चर्चा करते हैं: विपस्सना व झाझेन, केंद्रीकरण की विधियां, प्रकाश व अंधकार पर ध्यान, हृदय के विकास की विधियां…।
साथ ही ओशो ध्यान संबंधी प्रश्नों के उत्तर भी देते हैं व हमें बताते हैं कि ध्यान क्या है, कैसे ध्यान करना शुरू करें। और कैसे अपनी अंतर-यात्रा को निर्बाध रूप से जारी रख सकें।
‘‘ध्यान की शुरुआत तो है, पर उसका कोई अंत नहीं है। वह अंनत तक अनवरत चलता चला जाता है। मन तो छोटी सी चीज है, ध्यान तुम्हें पूरे अस्तित्व का हिस्सा बना देता है। यह तुम्हें स्वतंत्रता देता है कि तुम पूर्ण के साथ एक हो जाओ।’’
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