Vishwavidyalaya Prakashan
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Vishwavidyalaya Prakashan, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण, संतों का जीवन चरित व वाणियां
Adhunik Bharat Ke Yug Pravartak Sant [PB]
Vishwavidyalaya Prakashan, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण, संतों का जीवन चरित व वाणियांAdhunik Bharat Ke Yug Pravartak Sant [PB]
योग, साधना, तप, संयम इन भावों को जिन महान संतों ने अपने माध्यम से चरितार्थ ही नहीं किया; बल्कि दर्शन को एक नयी दिशा भी दी उन संन्यासियों में अग्रणी रामकृष्ण परमहंस देव थे। उनके पश्चात् यह शृंखला स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ, महॢष रमण, श्री अरविन्द, स्वामी रामानन्द के माध्यम से निरन्तर भारतीय संस्कृति को सम्मानित करती रही है, साथ ही भारतीय दर्शन को दिव्य अनुभूतिपरक दर्शन का बाना पहनाकर संसार में अग्रणी स्थान प्रदान करती रही है। आज के परिप्रेक्ष्य में देखें तो पुन: हमारा देश विपत्ति के भँवर में फँसा इन्हीं योगियों की ओर देख रहा है। इन्हीं योगियों की जीवन दृष्टि, इनके विचार ही मृतप्राय हो रही भारतीय संस्कृति को पुनर्जीवन प्रदान कर सकते हैं। हम भूल चुके हैं हमारे देश की मिट्टïी में, जलवायु में अभी भी योग और साधना की शक्ति है। जिसके प्रति जागरूक होकर व्यक्ति अपनी चेतना को जागृत कर सकता है। भ्रमपूर्ण आसक्तियों पर, मन पर, शरीर पर अंकुश लगाकर जीवन के शाश्वत आनन्द की ओर अग्रसर हो सकता है। यह पुस्तक उन सभी दुर्लभ विचारों को प्रस्तुत करने की चेष्टा करती है जो व्यक्ति को दिशा प्रदान कर सकते हैं। इन योगियों की विशिष्टता यही है कि योग साधना एवं संन्यास का रास्ता अपनाकर भी इन्होंने निरन्तर मानव जाति के बीच रहकर बड़ी सरलता से, व्यक्ति की आत्म चेतना को जगाने का प्रयास किया है।
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Vishwavidyalaya Prakashan, संतों का जीवन चरित व वाणियां
Baba Neeb Karauri Ke Alaukika Prasang [PB]
बाबा नीब करौरी अपने समय के महानतम संत थे। उनके जन्म काल के बारे में कोई प्रामाणिक विवरण उपलब्ध नहींं है लेकिन कुछ भक्त उनके जीवन का विस्तार 18वीं शताब्दी से २०वीं शताब्दी तक मानते हैं। बहरहाल उन्होंने ११ सितम्बर १९७३ को लौकिक शरीर त्याग दिया। वे सर्वज्ञ थे, सर्वशक्तिमान थे और सर्वव्यापक थे। वे कहते थे, ”मैं हवा हूँ, मुझे कोई रोक नहीं सकता। मैं धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए पृथ्वी पर आया हूँ”
बाबा ने कथा, प्रवचन, आडम्बर, प्रचार-प्रसार से दूर रह कर दीन-दु:खियों की सेवा में अपना सम्पूर्ण जीवन लगा दिया। भक्तों का आर्तनाद सुनकर तुरन्त पहुँच जाते और उसे संकट से उबार देते। वे भक्त-वत्सल थे, गरीब नवाज थे और संकटमोचक थे।
बाबा नीब करौरी का सम्पूर्ण जीवन अलौकिक क्रिया-कलापों से भरा हुआ है। कोई शक्ति उन्हें एक जगह बाँध कर नहीं रख सकती थी। वे एक साथ भारत में भी होते और लंदन में भी। लखनऊ में भी और कानपुर में भी। पवन वेग से क्षण भर में ही कहीं भी अवतरित हो जाते। उन्हें कमरे में कैद करके रखना असम्भव था। सूक्ष्म रूप में बाहर निकल जाते और वांछित कार्य सम्पन्न कर लौट आते। महाराजजी का हर क्षण अलौकिक होता—वे स्वयं अलौकिक जो थे।
महाराजजी के भक्तों ने उनकी अलौकिक घटनाओं, लीलाओं और प्रसंगों को विभिन्न पुस्तकों में संकलित किया है। ये पुस्तकें अंग्रेजी में भी हैं और हिन्दी में भी। इस पुस्तक में महाराजजी के सभी अलौकिक किक्रया-कलापों को एक जगह संकलित करने का प्रयास किया गया है।
अनुक्रम : श्री चरणों में, सन्दर्भ, मेरे नीब करौरी बाबा, वाणीसिद्ध महात्मा १. बाबा नीब करौरी का जीवन और महाप्रयाण २. अलौकिक लीलाओं की लम्बी शृंखला ३. बाबा के महाप्रयाण के बाद की कुछ लीलाएँ ४. नीब करौरी बाबा के वैचारिक प्रसंग।SKU: n/a -
Vishwavidyalaya Prakashan, ऐतिहासिक नगर, सभ्यता और संस्कृति
Bauddha Kapalika Sadhana Aura Sahitya
हिन्दी के आदिकालीन साहित्य और भक्तिकालीन साहित्य की भूमिका प्रस्तुत करनेवाली बौद्ध सिद्धों की अपभ्रंश रचनाओं का अध्ययन केवल हिन्दी ही नहीं सम्पूर्ण समकालीन साहित्य, किंबहुना तत्कालीन समग्र धर्मदार्शनिक एवं साधनात्मक जीवन के अध्ययन के लिए उपयोगी है; क्योंकि तंत्रदर्शन एवं साधना का अति व्यापक एवं गंभीर प्रभाव सर्वत्र दिखाई पड़ता है। इसी दृष्टि से बहुत पहले १९५८ में तांत्रिक बौद्ध साधना और साहित्य की रचना की गई थी। यह ग्रन्थ उस अध्ययन के एक पक्ष का विस्तार है। बहुत पहले आचार्य डॉ० हजारीप्रसाद जी द्विवेदी ने अपने ग्रंथ ‘नाथ सम्प्रदाय’ में जालंधर पाद और कान्हुपा के कापालिक साधन और ‘बामारग’ की चर्चा नाथ सम्प्रदाय के परिप्रेक्ष्य में ही की थी। दूसरे उस समय बौद्धों के कापालिक साधन और दर्शन से सम्बन्धित किसी शास्त्रीय ग्रन्थ की सहायता नहीं ली गई थी। अत: बौद्धों के कापालिक तत्त्वों, साधनों, दार्शनिक सिद्धान्तों की मीमांसा भी नहीं हो पाई। यहाँ तक कि श्री स्नेलग्रोव ने हेवज्रतंत्र और उसकी टीका हेवज्रपंजिका का संपादन करके भी उसके कापालिक तत्त्वों का विस्तृत विवेचन नहीं किया और न एक पृथक् बौद्ध साधनाधारा के रूप में इसे प्रस्तुत ही किया। यह ग्रंथ बौद्ध साधना और साहित्य के अनेक अछूते, विस्मृत, तिरस्कृत और महत्त्वपूर्ण सूत्रों को एकत्रित कर उनका व्यवस्थापन करते हुए बौद्धों के कापालिकतत्त्व का स्वरूप प्रस्तुत करता है। सामान्यतया केवल शैवों में ही कापालिकों की स्थिति माननेवालों को इस ग्रंथ से नया प्रकाश, नई सूचनाएँ एवं भारतीय कापालिक साधना का एक नया स्वरूप देखने को मिलेगा। कापालिक साधना के विषय में फैली अनेक भ्रांतियों का निराकरण भी होगा, इसमें संदेह नहीं।
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Vishwavidyalaya Prakashan, ऐतिहासिक नगर, सभ्यता और संस्कृति
Bharat Ke Poorva Kalik Sikke
भारत के पूर्व-कालिक इतिहास-निरूपण के निमित्त सिक्कों का सर्वाधिक महत्त्व है। इन सिक्कों पर अंकित आलेखों के माध्यम से अज्ञात तथ्य प्रकाश में आये और संदिग्ध समझे जाने वाले तथ्यों की पुष्टिï भी हुई। इस प्रकार सिक्कों के माध्यम से प्राप्त जानकारी से इतिहास का प्रामाणिक स्वरूप प्रकाश में आया। भारत में अन्तर्राष्टï्रीय ख्याति के मुद्राशास्त्री डॉ० परमेश्वरीलाल गुप्त ने इस ग्रन्थ में पूर्वकालीन (आरम् भ से 12वीं शती ई०) सिक्कों का समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है। सिक्कों के माध्यम से तत्कालीन इतिहास की जानकारी किस प्रकार होती है, इसका विस्तृत विवेचन पुस्तक में किया गया है। इतिहास तथा पूर्व-कालिक सिक्कों के अध्येताओं के लिए यह पुस्तक अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगी। पुस्तक में सिक्कों के अनेक चित्र सम्मिलित किये गए हैं।
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Vishwavidyalaya Prakashan, ऐतिहासिक नगर, सभ्यता और संस्कृति, राजनीति, पत्रकारिता और समाजशास्त्र
Bharatiya Rahasyavad
Vishwavidyalaya Prakashan, ऐतिहासिक नगर, सभ्यता और संस्कृति, राजनीति, पत्रकारिता और समाजशास्त्रBharatiya Rahasyavad
प्रो० राधेश्याम दूबे मध्यकालीन हिन्दी साहित्य के अध्येता हैं। भक्तिकालीन कवियों की रचनाओं का अध्ययन करते समय लेखक ने भारतीय रहस्यवाद को ध्यान में रखा है। वस्तुत: भारतीय अध्यात्मविद्या अथवा ब्रह्मïविद्या ही भारतीय रहस्यवाद है। प्राचीन भारतीय वाङ्मय में रहस्यवाद के अर्थ में अध्यात्मविद्या, ब्रह्मïविद्या, उपनिषद्, गुह्यïविद्या, गुह्यïमार्ग आदि शब्दों के प्रयोग मिलते हैं। योग, भक्ति, कर्म और ज्ञान – ये भारतीय अध्यात्मसाधन के प्रधान उपाय हैं। अत: साधन की दृष्टि से विचार करते हुए लेखक ने भारतीय रहस्यवाद को चार भेदों में विभक्त कर (जैसे-योगपरक, रहस्यवाद, भक्तिपरक रहस्यवाद, ज्ञानपरक, रहस्यवाद, कर्मपरक रहस्यवाद) उनकी व्याख्या की है। भारतीय रहस्यवाद का विकासात्मक स्वरूप प्रस्तुत करते हुए विद्वान लेखक ने उसके तात्त्विक स्वरूप की विवेचना की है। इस प्रकार इस ग्रन्थ के अध्ययन द्वारा रहस्यवाद अथवा भारतीय रहस्यवाद के सन्दर्भ में हिन्दी के पाठकों के मन में जो भ्रम की स्थिति बनी रहती है, वह दूर हो जाती है।
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Vishwavidyalaya Prakashan, ऐतिहासिक नगर, सभ्यता और संस्कृति
Bharatiya Rashtravad : Swaroop Aur Vikas
विषय-सूची 1. सम्पादकीय : कृष्णदत्त द्विवेदी / 2. भारतीय राष्ट्रीयता का विकास और भारतीय संविधान : प्रोफेसर आर० के० मिश्र / 3. भारतीय राष्ट्रवाद का स्वरूप : डॉ० पीताम्बर दत्त कौशिक / 4. राष्ट्रवाद : सम् प्रत्ययात्मक विश्लेषण : डॉ० श्यामधर ङ्क्षसह / 5. राष्ट्रवाद की वैचारिकी एवं भारतीय राष्ट्रवाद -समाज ऐतिहासिक विश्लेषण : डॉ० जयकान्त तिवारी / 6. परिवर्तन के परिवेश में राष्ट्रीय चरित्र की समस्या : डॉ० ए० एल० श्रीवास्तव एवं० डॉ० प्रदीप कुमार ङ्क्षसह / 7. शिक्षा राष्ट्रीयता और महामना मालवीय : डॉ० कृष्णदत्त तिवारी / 8. साम्प्रदायिकता – भारतीय राष्ट्रवाद का कटु पक्ष : डॉ० जे० एन० ङ्क्षसह एवं डॉ० आनन्द प्रकाश ङ्क्षसह / 9. भारतीय राष्ट्रवाद : निर्माण प्रक्रिया एवं समस्याएँ -शिवदत्त त्रिपाठी / 10. भारतीय राष्ट्रवाद एवं अस्मिता के संकट की चुनौतिया : डॉ० पी० एन० पाण्डेय / 11. राष्ट्रीय निर्माण और भारतीयकरण-संकल्पना : डॉ० जनार्दन उपाध्याय 12. भारतीय राष्ट्रवाद -अध्ययन दृष्टिकोण और प्रवृत्तियाँ : राधेश्याम त्रिपाठी / 13. सुभाषचन्द्र बोस और उग्र राष्ट्रवाद : डॉ० कौशल किशोर मिश्र / 14. भारतीय राष्ट्रवाद -कुछ विचारणीय तथ्य : डॉ० शिव बहादुर ङ्क्षसह / 15. राष्ट्रमण्डल में नेहरू का भारत : डॉ० शेफाली बनर्जी / 16. भारत में उपराष्ट्रवादी आन्दोलन : डॉ० अरविन्द कुमार जोशी
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Vishwavidyalaya Prakashan, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण
Bhartendu Harishchandra : Ek Vyaktittva Chitra
हिन्दी नवजागरण के प्रथम पुरुष, युग-प्रवर्तक, सर्वतोमुखी प्रतिभासम्पन्न भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जीवन अत्यन्त विविधतापूर्ण और रसमय था। उनके साहित्य में उनका व्यक्तित्व झलकता है। 35 वर्ष के लघु जीवन में उन्होंने देश को, समाज को, साहित्य को नई दिशा प्रदान की। पत्र-पत्रिकाएँ, साहित्यिक कृतियाँ उनकी आत्म प्रकृति की सुरभि बिखेरती हैं। भारतेन्दु की दानशीलता, रसिकता, अक्खड़पन, मुक्तहस्त पैसा लुटाने की प्रवृत्ति, उनके व्यक्तित्व के प्रमुख अंग हैं। स्वाभिमान ऐसा कि— सेवक गुनीजन के, चाकर चतुर के हैं, कविन के मीत, चित हित गुन गानी के। सीधेन सों सीधे, महा बांके हम बांकेन सों, ‘हरिचन्द’ नगद दमाद अभिमानी के। चाहिबे की चाह, काहू की न परवाह, नेही, नेह के, दिवाने सदा सूरति-निवानी के। सरबस रसिक के, सुदास दास प्रेमिन के, सखा प्यारे कृष्ण के, गुलाम राधा रानी के। दानशीलता के फलस्वरूप यह दिन भी देखना पड़ा— मोहि न धन के सोच भाग्य बस होत जात धन। पुनि निरधन सो देस न होत यहौ गुनि गुनि धन। मों कहं एक दुख यह जू प्रेमिन ह्वïै मोहे त्याग्यौ। बिना द्रव्य के स्वानहु नङ्क्षह मोसो अनुराग्यौ॥ सब मिलन छोड़ी मित्रता बन्धुन नातौ तज्यों। जो दास रह्यïौ मम गेह को, मिलन हूँ मैं अब सो लज्यौ॥ ‘घर फूँक तमाशा देख’ को चरितार्थ करने वाले ऐसे उन्मुक्त अभिमानी के मनमोहक संघर्षपूर्ण व्यक्तित्व की झलकियाँ हैं, इस कृति में। अनुक्रमणिका आमुख, 1. विषय-प्रवेश, 2. व्यक्तित्व के विविध रंग, रचनाओं में आत्मचित्रण, माधवी और मल्लिका, सत्यवीर की अग्नि-परीक्षा, 3. कृतित्व के विविध आयाम, हिन्दी नाटकों के जन्मदाता, हिन्दी में सिद्धान्तनिष्ठ पत्रकारिता के प्रवर्तक, हिन्दी गद्य के परिष्कारक, निबन्ध इतिहास तथा पुरातत्त्ïव, 4. उपसंहार, एक देशभक्त की दु:खान्त जीवन-यात्रा, परिशिष्ट, भारतेन्दु जीवन-सारिणी—प्रस्तुति : डॉ० भानुशंकर मेहता, भारतेन्दु की हिन्दी-सेवा—ज्ञानचंद जैन , भारतेन्दु की प्रेमिका मल्लिका द्वारा भारतेन्दु की जन्मतिथि पर प्रस्तुत चार बंगला गीत, 4. चन्द्रास्त, 5. शाही राज्याभिषेक दरबार में भारतेन्दु परिवार का परिचय, लेखक का संक्षिप्त परिचय।
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Vishwavidyalaya Prakashan, इतिहास, ऐतिहासिक नगर, सभ्यता और संस्कृति
Bhojraj
धाराधीश राजा भोज भारतीय ज्ञान-विज्ञान, साहित्य, संस्कृति और इतिहास के मानदण्ड हैं। उन्होंने तलवार के क्षेत्र में कभी समझौता नहीं किया, पर लेखनी के क्षेत्र में सदा समन्वय का मार्ग स्वीकार किया। अपने 55 वर्ष 7 मास 3 दिन के शासन काल में वे वीरता और विद्वत्ता के प्रमाण बन गये। साहित्य, ज्योतिष, आयुर्वेद, कोश, व्याकरण, राजनीति, धर्मशास्त्र, शिल्प, दर्शन, विज्ञान, रसायन आदि अपने युग के प्राय: सभी ज्ञात विषयों पर भोज ने साधिकार जो अनेक ग्रन्थ रचे उनमें से 80 से अधिक के नाम ज्ञात हैं। इनमें से प्राय: आधे ग्रन्थ सुलभ भी हैं। उनमें से उनकी कतिपय पुस्तकें ही प्रकाशित और उनमें से भी बहुत कम सुलभ हैं। राजा भोज के ताम्रपत्र, शिलालेख, भवन, मन्दिर, मूर्तियाँ आदि पुरा प्रमाण प्राप्त होते हैं। भारतीय परमपरा में विक्रमादित्य के बाद राजा भोज का ही सर्वाधिक स्मरण किया जाता है। राजा भोज न केवल स्वयं विद्वान अपितु विद्वानों के आश्रयदाता भी थे। इतिहास-पुरुष होने पर भी वे अपनी अपार लोकप्रियता के कारण मिथक पुरुष हो गये। भारतीय परमपरा के ऐसे शलाका पुरुष का प्रामाणिक परिचय इस भोजराज ग्रन्थ में संक्षेप में दिया जा रहा है। हिन्दी में यह पहली पुस्तक है जिसमें साहित्य और संस्कृति के प्रकाश स्त?भ राजा भोज को पूरी तरह से पहचानने की कोशिश की गयी है। वाग्देवी के आराधक तथा असि और मसि के धनी भोज को समझने के लिए यह ग्रन्थ सबके लिए उपयोगी सिद्ध होगा।
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Vishwavidyalaya Prakashan, अध्यात्म की अन्य पुस्तकें, रामायण/रामकथा
Bhushundi Ramayan : Kathavastu tatha Sameeksha
Vishwavidyalaya Prakashan, अध्यात्म की अन्य पुस्तकें, रामायण/रामकथाBhushundi Ramayan : Kathavastu tatha Sameeksha
भुशुण्डि-रामायण की चर्चा शताब्दियों से रसिक सम्प्रदाय के आचार्यों, रामचरितमानस के टीकाकारों तथा अध्यात्म-रामायण एवं रामचरितमानस के प्रमुख स्रोतों के अनुसन्धाताओं की कृतियों में निरन्तर होती आयी है। किन्तु ग्रन्थ के अप्राप्त होने से उसकी वास्तविकता या मूल तत्त्व की छान-बीन संभव नहीं हो सकी थी। प्रस्तुत ग्रन्थ का सम्पादन उपयुक्त चार प्रतियों के आधार पर किया गया है। इसमें चार खण्ड हैं—पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण जिनकी श्लोक संख्या छत्तीस हजार है। इस प्रकार इसका रूप वाल्मीकि रामायण से ड्योढ़ा बड़ा है। संस्कृत से अनभिज्ञ रामायण-साहित्य के अनुसंधाताओं के लिए प्रस्तुत ग्रन्थ के मूल तत्त्वों का ग्रहण इसकी भूमिका सीमा में ही संभवना पाठकों की सुविधा के लिए अपनी हिन्दी प्रस्तावना के साथ ही सुप्रसिद्ध विद्वान् डॉ० राघवन् का अंग्रेजी आमुख भी दे दिया है।
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Vishwavidyalaya Prakashan, संतों का जीवन चरित व वाणियां
Brahmarshi Devraha-Darshan
जब आनन्द में अवसाद, शान्ति में अशान्ति, योग में भोग की प्रवृत्ति बढ़ती है तो युगद्रष्टा गुरु की खोज में सभी विकल रहते हैं। ब्रह्मर्षि देवराहा बाबा इस कलियुग में अप्रतिम गुरु थे जो भगवत्स्वरूप थे जिनके दर्शन, स्पर्श और शुभाशीष से तत्व ज्ञान की प्राप्ति सम्भव थी। उनके अन्त:करण से प्रस्फुटित वाणी में मानव पर मंत्रवत् प्रभाव डालने की क्षमता थी। वे भारतीय संस्कृति के विग्रह थे जो दया, ममता, कल्याण के स्तोत्र थे। पूज्य देवराहा बाबा का सर्वात्म दर्शन मानव में सद्भाव, प्रेम और विश्वशान्ति का उत्प्रेरक तत्व है जिसकी आज सर्वाधिक आवश्यकता है। ब्रह्मर्षि देवराहा बाबा के नाम की जितनी प्रसिद्धि है, उनके परिचय की उतनी ही अल्पता है। उनके दिव्य व्यक्तित्व को सांगोपांग रूप में प्रस्तुत करने में डॉ० अर्जुन तिवारी का प्रयास प्रशंसनीय है। बाबा के शिष्य डॉ० तिवारी ने पत्रकार-सुलभ प्रवृत्ति के चलते युग-प्रवर्तक संत, भक्त और योगी की जीवन-गाथा को प्रामाणिक रूप में उपस्थापित किया है। श्रद्धार्चन, जीवन-जाह्नïवी, सर्वात्मभक्ति-योग, प्रवचन-पीयूष, सुबोध कथा, सूक्ति-मुक्ता और अनुगतों की अनुभूति नामक अध्यायों में ब्रह्मर्षि से संदर्भित अनुकरणीय तथ्य हैं। इसका प्रत्येक शब्द आध्यात्मिक अनुभूति से स्फूर्त है जिसके चिन्तन और मनन से मन को अलौकिक शान्ति मिलती है और चित्त निर्मल होता है। —रामकुमार त्रिपाठी
विषयानुक्रमणिका : प्रथम अध्याय : श्रद्धार्चन द्वितीय अध्याय : जीवन-जाह्नïवी तृतीय अध्याय : सर्वात्मभक्ति-योग चतुर्थ अध्याय : प्रवचन-पीयूष पंचम अध्याय : सुबोध कथा षष्ठï अध्याय : सूक्ति मुक्ता सप्तम अध्याय : अनुगतों की अनुभूति।SKU: n/a -
Religious & Spiritual Literature, Vishwavidyalaya Prakashan, अध्यात्म की अन्य पुस्तकें, संतों का जीवन चरित व वाणियां
Buddha Aur Unaki Shiksha (Prashnottari) [PB]
Religious & Spiritual Literature, Vishwavidyalaya Prakashan, अध्यात्म की अन्य पुस्तकें, संतों का जीवन चरित व वाणियांBuddha Aur Unaki Shiksha (Prashnottari) [PB]
भगवान बुद्ध की शिक्षा अत्यन्त सरल है। यह प्रकृति के शाश्वत नियम पर आधारित सार्वकालिक, सार्वजनिक, सार्वभौमिक मानव मात्र के उत्थान व कल्याण के लिए एक मार्ग है। इसे धर्मविशेष कहकर संकुचित करना अनुचित है। जो भी ‘आर्य अष्टांगिक’ मार्ग पर चलेगा, अपना उत्थान कर लेगा। यह शिक्षा नैतिकता और अध्यात्म से ओतप्रोत है। इसमें न कोई कर्मकाण्ड है, न कोई आडम्बर। सहज, सीधा मार्ग है। जो इस पर चलेगा, उसे प्रतिफल तत्काल मिलता है, यही इसकी विशेषता है। चाहे कोई बुद्धिजीवी हो या कोई अनपढ़ गँवार हो, सबके लिए यह सुगम मार्ग है। कोई चल कर तो देखे। इसीलिए लोग अब इस दिशा की ओर मुड़ने लगे हैं। जीवन छोटा है, समय का नितान्त अभाव है, सामने पुस्तकों के जंगल पड़े हैं। बुद्ध के विचार कैसे जाने जायँ? हेनरी यस.आल्काट की यह पुस्तक ‘गागर में सागर’ की उक्ति को चरितार्थ करती है। इस छोटी-सी पुस्तक में चमत्कार ही चमत्कार हैं जिसमें बुद्ध भगवान् द्वारा बतलाये गये उच्च और आदर्श विचारों को प्रारम्भ में समझने तथा अनुभव करने के लिए मुख्य रूप से बौद्ध इतिहास, नियम व दर्शन का संक्षिप्त, पर पूर्ण मौलिक ज्ञान कराने का प्रमुख उद्देश्य ध्यान में रखा गया, जिससे उसे विस्तार से समझने में आसानी हो सके। वर्तमान संस्करण में बहुत से नये प्रश्न और उत्तर जोड़े गये हैं और तथ्यों को 5 वर्गों में बाँट दिया गया है -यथा : (1) बुद्ध का जीवन, (2) उनके नियम, (3) संघ, विहार के नियम, (4) बुद्धधर्म का संक्षिप्त इतिहास, इसकी परिषद् व प्रसार (5) विज्ञान से बुद्धधर्म का समाधान। इससे, इस छोटी-सी पुस्तक का महत्व काफी बढ़ जाता है और सर्वसाधारण व बौद्ध-शिक्षालयों में उपयोग के लिए यह और भी सार्थक बन जाती है। समय के तीव्र प्रवाह के साथ विचारों में भी उतनी ही गति से परिवर्तन होना स्वाभाविक है। गतिशील जीवन-शैली व सामूहिक सोच ने हमें सकल विश्व को एक इकाई के रूप में पहचान करने को विवश कर दिया है। विश्व के विभिन्न धर्म जहाँ एक-दूसरे से अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए छिद्रान्वेषण में लग जाया करते हैं, वहीं अब किसी सार्वभौमिक , सार्वलौकिक सार्वजनीन व सर्वदेशीय धर्म की तलाश होने लगी। बुभुक्षाभरी जिज्ञासा ने थियोसाफिकल सोसाइटी के संस्थापक अध्यक्ष (स्व.) हेनरी यस. आल्काट का ध्यान ‘भगवान बुद्ध’ के विचारों की ओर आकर्षित किया। उन्होंने बुद्ध-धर्म व उनके विचारों में वह सब कुछ पाया, जिसकी आवश्यकता आज के विश्व की थी। धर्म केवल जानने के लिए नहीं, प्रत्युत धारण करने के लिए होता है। यह जीवन जीने की वास्तविक कला सिखाता है। अर्थ, काम, मोक्ष का प्रदाता है। इसीलिए 1881 में उन्होंने अंग्रेजी में यह पुस्तक लिखी थी। यह पुस्तक प्रश्नोत्तरी के रूप में अपनी विशेषताओं के कारण थोड़े ही समय में इतनी लोकप्रिय हो गयी कि यह अगणित संस्करणों के साथ यूरोप तथा विश्व की अनेक भाषाओं में प्रकाशित होने लगी। कुछ देशों ने तो इसे विद्यालयों की पाठ्य-पुस्तक के रूप में भी स्वीकृत कर दिया। पर हिन्दी में अब तक इसका अनुवाद न होना वस्तुत: एक दुर्भाग्यपूर्ण पहलू था। अत: सबके कल्याण हेतु हिन्द-भाषी लोगों के लिए इसका हिन्दी अनुवाद उपलब्ध कराने का प्रयास किया गया है। धर्म की इतनी संक्षिप्त पर पूर्ण, सरल, सटीक, स्पष्ट तथा उपयोगी व्याख्या कदाचित् ही कहीं मिले।
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Vishwavidyalaya Prakashan, ऐतिहासिक नगर, सभ्यता और संस्कृति
Buddhakaleen Samajik Arthik Jeevan
प्राचीन भारत के इतिहास में महात्मा बुद्ध का उदय सामाजिक तथा धार्मिक परिवर्तन का काल था। पालि, त्रिपिटक बौद्ध धर्म के प्रमुख ग्रन्थ हैं। इन ग्रन्थों में बुद्ध काल के सामाजिक, आॢथक, धाॢमक जीवन का विस्तृत विवरण है। सुत्तपिटक में बुद्ध के प्रवचनों का संग्रह है। इस पुस्तक में सुत्तपिटक के आधार पर तत्कालीन भौगोलिक परिवेश, ग्रामीण तथा नगरीय जीवन, भवन, व्यवसाय-वाणिज्य, कृषि एवं पशुपालन आदि का विस्तृत अध्ययन प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। बुद्ध के समय बौद्ध धर्म मुख्यत: उत्तर भारत के पूर्वी भाग में प्रचलित था। बुद्ध ने उत्तर भारत के लुंबिनी, बोधगया, सारनाथ, कुशीनगर, राजगीर, (राजगृह), सांकश्य (संकिस्मा), वैशाली, श्रावस्ती आदि स्थानों की यात्राएँ कीं, उपदेश दिए। वे सभी त्रिपिटक में संगृहीत हुए। इन ग्रन्थों में तत्कालीन ग्रामीण और नगरीय जीवन, उनके भवन, उनके निर्माण की कला, उनके निर्माण में लगे लोग, उनके उपकरण, उनके वस्त्र, आभूषण, उनके व्यवसाय, उनके आहार-विहार, बौद्ध भिक्षुओं की दिनचर्या आदि का विस्तृत विवरण है, जिसकी झलक आज भी देखने को मिलती है।
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Vishwavidyalaya Prakashan, ऐतिहासिक नगर, सभ्यता और संस्कृति
Gyanganj [PB]
ज्ञानगंज साधारण भौगोलिक स्थान नहीं है। यद्यपि यह गुप्त रूप से भूपृष्ठï पर विद्यमान है तथापि इसका वास्तविक स्वरूप काफी दूर है। भौम (भूमि-सम्बन्धी) ज्ञानगंज कैलास के आगे उध्र्व में स्थित है। फिर भी वह साधारण पर्यटकों की गति-विधि से अतीत है। यह सिद्धस्थान तिब्बतीय गुप्त योगियों की भाषा में ज्ञानगंज के नाम से प्रसिद्ध है। अनादिकाल से हिमालय का सम्पूर्ण क्षेत्र भारतीय सन्तों के लिए तपोभूमि रहा है। प्राचीनकाल के ऋषि-मुनि से लेकर आधुनिक काल के अनेक संत-योगी हिमालय के विभिन्न क्षेत्रों में तपस्या करते रहे। इसी हिमालय में तिब्बत नामक एक रहस्यमय प्रदेश है। कविराजजी के कथनानुसार यहाँ अनेक ऐसे मठ और आश्रम हैं जिनके बारे में सभ्य जगत् को जानकारी नहीं है। वे सामान्य पर्यटकों के निकट अलक्ष्य रहते हैं। इन आश्रमों में योग के साथ-साथ विज्ञान की शिक्षा दी जाती है। केवल उच्चकोटि के लोग इन मठों में प्रवेश पाते हैं। ज्ञानगंज के बारे में अनेक पाठकों को उत्सुकता है, उसकी निवृत्ति इस पुस्तक से अवश्य हो जायेगी। इस संकलन में कविराजजी के दो अलख्य लेख प्रकाशित किये जा रहे हैं जो सिद्धभूमि; तथा सिद्धों की भूमि तिब्बत के नाम से प्रकाशित हैं। दोनों ही लेख ज्ञानगंज की महत्ता पर प्रकाश डालते हैं। अनुक्रम : ज्ञानगंज और श्री श्रीविशुद्धानन्द, ज्ञानगंज-रहस्य, देह और कर्म एवं ज्ञानगंज की सारकथा, ज्ञानगंज की पत्रावली, राम ठाकुर की कहानी और कौशिक आश्रम सहित ज्ञानगंज का विवरण, सिद्धभूमि, सिद्धों की भूमि तिब्बत। अनुक्रम ज्ञानगंज और श्री श्रीविशुद्धानन्द ज्ञानगंज-रहस्य देह और कर्म एवं ज्ञानगंज की सारकथा ज्ञानगंज की पत्रावली राम ठाकुर की कहानी और कौशिक आश्रम सहित ज्ञानगंज का विवरण सिद्धभूमि सिद्धों की भूमि तिब्बत
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Vishwavidyalaya Prakashan, इतिहास
Hindi Sahitya Ka Itihas [PB]
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हिन्दी के युग-निर्माता, विचारक एवं आचार्य हैं। जिस समय हिन्दी के साहित्यकार भाषा और साहित्य के सामान्य प्रश्नों को सुलझाने का बाल प्रयास कर रहे थे, उस समय शुक्लजी अपने साहित्यिक परिवेश का अतिक्रमण कर साहित्य दर्शन, मनोविज्ञान, इतिहास, विज्ञान आदि अनेक क्षेत्रों की नवीनतम उपलब्धियों को आत्मसात करके हिन्दी के मौलिक काव्यशास्त्र की आधारशिला रखकर विचार और चिन्तन के क्षेत्र में एक नये युग का निर्माण कर रहे थे। नि:सन्देह एक कोश निर्माता, इतिहासकार, निबन्ध लेखक, अनुवादक, आलोचक, स?पादक और रचनाकार के रूप में आचार्य शुक्ल का अवदान अन्यतम है। इन सभी क्षेत्रों में उन्होंने पथ-प्रवर्तन का कार्य किया है। यह सर्वस्वीकृत तथ्य है कि आचार्य शुक्ल ने हिन्दी-साहित्य के इतिहास का एक ‘पक्का और व्यवस्थित ढाँचा’ पहली बार खड़ा किया है। आचार्य शुक्ल का उद्देश्य भी यही था जिसमें वे पूर्णत: सफल हुए हैं। सीमित समय में अपर्याप्त सामग्री को सामने रखकर हिन्दी-साहित्य का जो इतिहास आचार्य शुक्ल ने प्रस्तुत किया है, उससे व्यवस्थित, प्राणवान्, प्रभावी और व्यक्ति-वैशिष्टïय-प्रतिपादक इतिहास आज तक दूसरा नहीं लिखा गया है। — डॉ० रामचन्द्र तिवारी
इतिहास-लेखन में रामचन्द्र शुक्ल एक ऐसी क्रमिक पद्धति का अनुसरण करते हैं जो अपना मार्ग स्वयं प्रशस्त करती चलती है। विवेचन में तर्क का क्रमबद्ध विकास ऐसे है कि तर्क का एक-एक चरण एक दूसरे से जुड़ा हुआ, एक दूसरे में से निकलता दिखेगा। इसीलिए पाठक को उस पर चलने में सुगमता होती है, जटिल से जटिल प्रसंग आसानी से हृदयंगम हो जाता है। — रामस्वरूप चतुर्वेदी
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Vishwavidyalaya Prakashan, ऐतिहासिक उपन्यास, ऐतिहासिक नगर, सभ्यता और संस्कृति
Hindu Rajya-Tantra : Complete (Part – 1 & 2)
Vishwavidyalaya Prakashan, ऐतिहासिक उपन्यास, ऐतिहासिक नगर, सभ्यता और संस्कृतिHindu Rajya-Tantra : Complete (Part – 1 & 2)
समितियों, चरणों और सभाओं के माध्यम से संचालित होने वाली वैदिक युगीन राज्य-तंत्र की व्यवस्था-यात्रा, आधुनिक भारत की संसदीय और पंचायती राज व्यवस्था तक आ पहुँची है। कहना अनुचित न होगा कि यह यात्रा भारतीय परिवेश के नवोन्मेष की यात्रा है। विश्लेषण की दृष्टि से देखें तो वैदिक युग के परवर्ती काल में लोगों की प्रवृत्ति अपने-अपने वर्ग का स्वतन्त्र शासन करने की हो चली थी। यह प्रवृत्ति वर्तमान लोकतांत्रिक राज्य व्यवस्था और आधुनिक राजनीति का विद्रूप भी है। वैसे तो विभिन्न कालखण्डों के इतिहासों को समेटे कितने ही कालजयी आख्यान हिन्दी पाठकों के बीच लोकप्रिय हुए, किन्तु स्व० काशीप्रसाद जायसवाल की 1924 ई० में प्रकाशित इस किताब को विशेष ख्याति मिली। मूल पुस्तक अंग्रेजी में लिखी गयी थी। यह मूल पुस्तक का अनूदित संस्करण है। पुस्तक में लेखक ने अत्यन्त सजीव व नये दृष्टिकोण से वैदिक इतिहास की सांगोपांग झाँकी पाठकों के लिए उपस्थित की है। साम्राज्यों के उत्थान-पतन की गाथाओं से बिल्कुल अलग यह हिन्दू राज्य-तंत्र की राजा रहित शासन प्रणालियों का विस्तृत आ?यान भी है। इस पुस्तक से इस जाति के संगठनात्मक या शासन प्रणाली समबन्धी इतिहास के एक बहुत बड़े अंश की पूर्ति होती है। इस पुस्तक को पढ़कर पता चलता है कि वैदिक ग्रन्थों में वर्णित प्रजातंत्रों का हमारा इतिहास कुछ अधिक प्रयोगधर्मी, कुछ अधिक परिपक्व और कुछ अधिक सफल था। हिन्दू राजनीतिशास्त्र सम्बन्धी साहित्य की रचना का आरम्भ 650 ईसा पूर्व में हो चुका था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र, कामंदकीय नीतिसार तथा मेगास्थनीज के आख्यानों से होते हुए प्रस्तुत पुस्तक की रचना तक की यह यात्रा-कथा हिमालय से लेकर हिन्द महासागर के बीच बसे इस विस्तृत भारतीय भूखण्ड के राज्य-तंत्रात्मक इतिहास की प्राचीन कथा है। इस पुस्तक का प्रथम संस्करण आने के बाद से दुनिया में बहुत-सी उथल-पुथल हुई है, छोटे-बड़े अनेक परिवर्तन हुए हैं और भारत भी इस बीच आजाद हो गया है। किन्तु इतिहास का अन्वेषण करने वाले इस आख्यान की महत्ता कम नहीं हुई है। वैसे तो वैदिक काल के इतिहास पर किसी का भी कुछ भी लिखना चुनौतीपूर्ण कार्य है पर आज की दुनिया और उसके कठिन सवालों को छोड़कर बीते समय की खंगाल और वैदिक इतिहास के पन्नों से आज के समाज को रूबरू कराना लेखक का विशिष्ट पुरुषार्थ भी है। पुराना इतिहास हमें सबक सिखाता है, हिदायतें देता है और आज के अन्धकार पर नयी रोशनी डालता है। कुछ सवाल दिमाग को मथते हैं, दिमाग में बहते ऐसे विचारों को पकड़ कर कागज पर उतारने से उसके नये-नये पहलू निकलते हैं। हमारे वेदों, पुराणों और उपनिषदों में वर्णित राज्यतंत्र की नीतियाँ, बदलते समय के साथ आधुनिक होते समाज ने त्याज्य मान लीं, अन्यथा खारवेल के शिलालेखों में राज्यारोहण को शासक होने के लिए शास्त्रसम्मत विधान नहीं माना गया है। विधिवत राज्याभिषिक्त राजा ही विधिमान्य शासक कहलाता था। इसीलिए विदेशी आक्रान्ताओं को ‘नैव मूद्र्धाभिषिक्तास्ते’ कहकर तिरस्कृत किया गया है।
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Religious & Spiritual Literature, Vishwavidyalaya Prakashan
Hindu Shaddarshan [PB]
प्रख्यात महाग्रन्थ ‘जपसूत्रम्’ के प्रणेता महान् दार्शनिक, गणितज्ञ तथा मनीषी स्वामी प्रत्यगात्मानन्द प्रणीत ‘हिन्दू षड्दर्शन’ के भाषानुवाद का प्रस्तुतिकरण इस प्रसंग की सूक्ष्म विवेचना न होकर इसका दिशानिर्देश-मात्र है, जो सूत्ररूप से ग्रथित है। साथ ही षड्दर्शन का साररूप है। जो विशाल कलेवरयुक्त गूढ़ तत्त्व समावृत षड्दर्शन का समग्र अध्ययन नहीं कर सकते, तथापि इस विषय के प्रति जिज्ञासु हैं, उनके लिए यह ग्रन्थ एक पथ-प्रदीप के समान है। स्वनामधन्य ग्रन्थकार का पूर्वनाम था प्रमथनाथ मुखोपाध्याय, तत्पश्चात् संन्यासाश्रम में ये स्वामी प्रत्यगात्मानन्द सरस्वती के नाम से विख्यात हो गये। दर्शनशास्त्र का अध्यापक होने पर भी इन्होंने गणित तथा विज्ञान में उतनी ही दक्षता प्राप्त करके दीर्घकालपर्यन्त शिक्षण-कार्य भी किया था। कालान्तर में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल महोदय के निर्देशानुसार आयोजित विश्वतन्त्र सम्मेलन का इन्हें अध्यक्ष भी मनोनीत किया गया था। महान् विद्वान सर जॉन वुडरफ, महामहोपाध्याय डॉ० पं० गोपीनाथ कविराज भी इनके प्रति श्रद्धावान् थे। 96 वर्ष की आयु में दिनांक 20-10-1973 ई० को इन्होंने इस धराधाम का त्याग करके अनन्त की यात्रा का वरण किया था। यह ग्रन्थ केवल वागविलास न होकर इन मनीषी की गहन अनुभूति एवं चिन्तना पर आधारित होने के कारण अत्यन्त उपयोगी है। प्रत्यक्ष ज्ञानयुक्त है। अत: पठनीय है।
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