Sasta Sahitya Mandal
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Hindi Books, Sasta Sahitya Mandal, महाभारत/कृष्णलीला/श्रीमद्भगवद्गीता
Bharat Savitri (HB)
हमारे प्राचीन साहित्य में जिन महान् ग्रंथों को असाधारण लोकप्रियता प्राप्त हुई है, उनमें महाभारत का अपना स्थान है। भारत का शायद ही कोई ऐसा शिक्षत और अशिक्षित परिवार हो, जिसमें महाभारत का नाम न पहुंचा हो और जो उसकी महिमा को न जानता हो। रामायण की भांति इस अमर ग्रंथ को भी बड़ा धार्मिक महत्व प्राप्त है और इसकी कथा सर्वत्र बड़े चाव और आदर-भाव से पढ़ी और सुनी जाती है। प्रस्तुत पुस्तक में भारतीय साहित्य के अध्येता तथा चिंतक श्री वासुदेवशरण अग्रवाल ने इस महान् ग्रंथ का एक नीवन एवं सारगर्भित अध्ययन प्रस्तुत किया है। यह अध्ययन वस्तुतः एक नई दृष्टि प्रदान करता है। यह पुस्तक तीन खंडों में प्रस्तुत की गई है। ‘विराट पर्व’ तक की सामग्री पहले खंड में आ गई है। युद्ध के अंत तक का अंश दूसरे खंड में, शेष तीसरे खंड में। इस प्रकार इन तीनों खंडों में संपूर्ण महाभारत का सार पाठकों को मिल जाता है।
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Hindi Books, Sasta Sahitya Mandal, ऐतिहासिक नगर, सभ्यता और संस्कृति
Kalp Barikchh (PB)
इस पुस्तक में हिंदी के विद्वान लेखक और पुरातत्ववेत्ता डा. वासुदेवशरण अग्रवाल के कुछ चुने हुए लेखों का संग्रह है। इन लेखों में उन्होंने प्राचीन भारतीय संस्कृति के अनेक छिपे पृष्ठों को खोला है और विविध रूपों में उस महान् संस्कृति के दर्शन पाठकों को कराए हैं। लेखक ने प्राचीन साहित्य का अध्ययन ही नहीं किया, उसमें बार-बार डुबकी लगाकर उसकी आत्मा के साथ साक्षात्कार भी किया है। यही कारण है कि वह उसका रसास्वादन इतने रोचक और सजीव ढंग से करा सके हैं। लेखक का यह दूसरा संग्रह ‘मण्डल’ से प्रकाशित हुआ है। प्रथम संग्रह ‘पृथ्वीपुत्र’ में उन्होंने जनपदीय लोक-जीवन के अध्ययन के लिए दिशा-निर्देश किया था।
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Hindi Books, Sasta Sahitya Mandal, इतिहास
Prathvi Putra (HB)
पृथिवी पुत्र हिन्दी के विद्वान लेखक और पुरातत्त्ववेत्ता श्री वासुदेवशरण अग्रवाल के समय-समय पर लिखे हुए उन लेखों और पत्रों का संग्रह है। जिनमें जनपदीय दृष्टिकोण की सहायता से साहित्य और जीवन के संबंध में विचार प्रकट किए गए हैं। उनके वैचारिक दृष्टिकोण की मूल प्रेरणा पृथिवी या मातृभूमि है। उसके साथ जीवन के सभी सूत्रों को मिला देने से जीवन का स्वर फूटता है। यह मार्ग लोकान्मुख है, साहित्यिक कुतूहल नहीं, भावना का जन्म होता है। यह जीवन का धर्म है। जीवन की आवश्यकताओं के भीतर से पृथिवी पुत्र भावना का जन्म होता है।
इन पुस्तक के लेखों में उन्होंने जनपदीय लोक जीवन के अध्ययन के लिए दिशा निर्देश किया है और पाठकों से अपेक्षा रखी है कि वे जनपदों में कदम कदम पर बिखरी उस मल्यवान सामग्री को नष्ट होने से बचाएँ जिसके आधार पर हमारा जन जीवन अब तक टिका रहा है और आगे भी राष्ट्र के। नवनिर्माण में हम जिसकी उपेक्षा बिना अपनी हानि किए, नहीं कर सकते ।। | हमें विश्वास है कि प्रस्तुत पुस्तक में संगृहीत लेख हिन्दी साहित्य के लिए एक नवीन देन है। पाठक इससे अवश्य लाभान्वित होंगे।
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Hindi Books, Sasta Sahitya Mandal, इतिहास, बौद्ध, जैन एवं सिख साहित्य
Sikkhon Ka Itihas (Set of Vol.3)
Hindi Books, Sasta Sahitya Mandal, इतिहास, बौद्ध, जैन एवं सिख साहित्यSikkhon Ka Itihas (Set of Vol.3)
भाग १ (1469 – 1708) – मध्यकाल में सिक्ख मत के उदय और तत्कालीन भारतीय समाज एवं संस्कृति में उसकी भूमिका को प्रस्तुत करती बख्शीश सिंह जी की यह पुस्तक सिक्खों के इतिहास को एकांगी ढंग से न देखते हुए समग्र भारतीय इतिहास-भूगोल और समाजशास्त्र के संदर्भ में चित्रित करती है। यह बताने के साथ ही कि सिक्ख कौन हैं, कैसे हैं, कहाँ-कहाँ हैं; सिक्ख मत का उदय और विस्तार किस प्रकार और किन सांस्कृतिक सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक परिस्थितियों में हुआ? लेखक ने सिक्खों की मूल भूमि पंजाब का बृहत्तर भारतीय भौगोलिकऐतिहासिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में परिचय दिया है और सिक्ख धर्म के इतिहास को भक्ति आंदोलन की लोक जागरणकारी चेतना के संदर्भ में रेखांकित किया है।
भाग २ (1709-1857) – सुप्रसिद्ध समालोचक विजय बहादुर सिंह के आलोचनात्मक लेखों के संग्रह ‘कविता और संवेदना’ का प्रकाशन ‘सस्ता साहित्य मण्डल प्रकाशन’ के लिए सुखद अनुभव है। आजादी के आस-पास और उसके बाद के कुछेक प्रमुख कवियों की काव्यानुभूति के स्वरूप और सृजनशीलता की पड़ताल इन लेखों में की गई है। कवियों की मानसिकता को सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भो, लोक जीवन और विचारधाराओं के प्रभावों-दबावों और टकराहटों से पनपी जीवन-स्थितियों के परिप्रेक्ष्य में देखते हुए उनकी काव्य-प्रवृत्तियों पर विचार किया गया है। कवियों की ‘संवेदना के पृष्ठ-रहस्यों’ का पता लगाने की प्रक्रिया में तलाश की गई है कि परंपरा और आधुनिकता के संबंध सूत्रों, भारतीय और वैश्विक परिदृश्य की परिघटनाओं ने रचनाकार विशेष की मानसिकता को गढ़ने में क्या भूमिका अदा की है; ग्रामीण अथवा शहरी मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि ने कवि की संवेदना एवं शिल्प की बनावट को किस प्रकार गढ़ा है; उसकी भाषा को, शब्दार्थ के संबंध को किस तरह गहन और व्यापक बनाया है। सप्तकों के कवियों, प्रगतिशील कवि-त्रयी, अकविता आंदोलन के कवि और हिंदी गजलकारों के कवि-स्वभाव और कविकर्म का मूल्यांकन करते हुए आलोचक की अपनी अभिरुचियाँ और वैचारिक आग्रह भी सक्रिय रहे हैं।
भाग ३ (1858-1947)
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