उपन्यास
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Prabhat Prakashan, उपन्यास, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण
Pheriwala Rachnakar
आत्मकथा ईमानदारी माँगती है, जिसे यहाँ बखूबी निभाया गया है। जहाँ-जहाँ इस लेखक में कमजोरियाँ नजर आईं, पूरी ईमानदारी से उसने स्वीकार किया। लेखकीय जीवन के वे राज भी बयाँ हुए हैं, जिन्हें एक उम्र तक कलम की नोक तले दबाकर रखा गया। ‘कृष्ण की आत्मकथा’ का यह रचनाकार अपनी आत्मकथा में भी उन्हीं योगेश्वर के आशीर्वाद की प्रतिध्वनि सुनता नजर आया है, वरना अपनी आँखों से उस युग की तस्वीर कैसे देख सकता था, जिसे कृष्ण ने भोगा था। उस संत्रास का कैसे अनुभव कर सकता था, जिसे उस युग ने झेला था। उस मथुरा को कैसे समझ पाता, जो भगवान् कृष्ण के अस्तित्व की रक्षा के लिए नट की डोर के तनाव पर सिर्फ एक पैर से चली। उस दुखी ब्रज के प्रेमोन्माद को कैसे महसूस करता, जो कृष्ण के वियोग में विरहाग्नि बिखेर रही थी।
जिंदगी के इस महाभारत में लेखक जयी हुआ या पराजित, इसका उत्तर सिर्फ समय के पास है। मगर यह आत्मकथा इस बात की गवाह है कि यह लड़ाई उन्होंने पूरी शिद्दत, ईमानदारी और पराक्रम से लड़ी।
मनु शर्मा की यह आत्मकथा फेरीवाला रचनाकार कृष्ण तथा अन्य चरित्रों की आत्मकथाओं की तरह पाठकों के हृदय में स्थान बनाएगी। पूरी शिद्दत और आत्मीयता के साथ पढ़ी जाएगी, इसमें कोई संशय नहीं है। आत्मकथाओं की शृंखला में एक और पठनीय आत्मकथा।मनु शर्मा ने साहित्य की हर विधा में लिखा है। उनके समृद्ध रचना-संसार में आठ खंडों में प्रकाशित ‘कृष्ण की आत्मकथा’ भारतीय भाषाओं का विशालतम उपन्यास है। ललित निबंधों में वे अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं तो उनकी कविताएँ अपने समय का दस्तावेज हैं।
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Prabhat Prakashan, उपन्यास
Phoolon Ki Boli
सिद्ध : ताँबे के चूर्ण को मल्लिका की आँच यानी अपनो सखो माया की सहायता से किसी बड़ी आँच में पिघलाकर पलाश के पत्तों के रस से मिला दिया जाय और फिर मुचकुंद का संयोग किया जाय तो चोखा सोना बन जाएगा।
कामिनी : मुचकुंद का संयोग क्या और कैसा?
सिद्ध : बस, स्वर्ण-रसायन में इतनी ही पहेली और है, थोड़ी देर में बतलाता हूँ; परंतु सोचता हूँ पहले हीरे-मोती बना दूँ। अपना सारा स्वर्ण लाओ।
दोनों : बहुत अच्छा।
( दोनों जाती हैं और थोड़ी देर में अपना सब गहना लेकर आ जाती हैं।)
सिद्ध : (गहनों को देखकर) तुम्हारे गहनों में कोई हीरे तो नहीं जड़े हैं?
कामिनी : नहीं, सिद्धराज।
माया : नहीं, महाराज।
सिद्ध : कोई मोती?
कामिनी : बहुत थोड़े से।
माया : मेरे पास तो बिलकुल नहीं हैं।
सिद्ध : कुमुदिनी, तुम अपने मोती गिन लो।
-इस पुस्तक से
स्वर्ण-रसायन के मोह और लोभ में हमारे देश के कुछ लोग कितने अंधे हो जाते हैं और सोना बनवाने के फेर में किस तरह अपने को लुटवा डालते हैं, यह बहुधा सुनाई पड़ता रहता है। वर्माजी ने उज्जैन के नगरसेठ व्याडि तथा कुछ अन्य के स्वर्ण-मोह और एक ठग सिद्ध एवं उसके शिष्य की कथा को आधार बनाकर यह नाटक लिखा है। निश्चय ही यह कृति पाठकों का भरपूर मनोरंजन करेगी।SKU: n/a -
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Vani Prakashan, उपन्यास
PRITHWIVALLABHA
प्रख्यात गुजराती साहित्यकार कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी रचित ‘पृथ्वीवल्लभ’ एक ऐतिहासिक उपन्यास है। इसका समय दसवीं सदी ईस्वी का अन्तिम दशक-994 ई.-है। यह वह समय है जब आन्ध्र प्रदेश के मान्यखेट को केन्द्र बनाकर चालुक्यवंशी तैलप अपना विशाल साम्राज्य खड़ा करने के लिए जी-जान से जुटा था और इधर ‘पृथ्वीवल्लभ’ के विरुद से विभूषित परमारवंशी मुंज अवंती को केन्द्र बनाकर मालव साम्राज्य खड़ा करने के लिए प्रयत्नशील था। स्वाभाविक ही दोनों सामन्तों का टकराव होना था और वह हुआ। तैलप की समस्या यह थी कि चोल, चेदि, पांचाल और राष्ट्रकूट राजाओं को अपने अधीन करके तथा गुजरात तक साम्राज्य विस्तार करके भी वह मालवराज मुंज को दबा नहीं पा रहा था। सोलह बार उसे मुंज से पराजित होना पड़ा था। किन्तु सत्रहवीं बार?…इतिहास में किसी ‘किन्तु का कोई सीधा उत्तर नहीं होता। युद्धक्षेत्रों, राजमार्गों, कारागारों, सुरंगों के रास्ते महत्वाकांक्षाएँ परस्पर टकराती हैं, दुरभिसंधियाँ, प्रतिशोध, प्रेम और घृणा जैसी मानवीय प्रवृत्तियाँ अपने विविध रूप दिखाती हैं। कभी प्रेम की विजय होती है और कभी घृणा से आवेष्ठित महत्वाकांक्षा की। इतिहास चक्र इसी तरह गतिमान रहता है। कलेवर में छोटा दिखते हुए भी प्रस्तुत उपन्यास ‘पृथ्वीवल्लभ’ नानारूप मानवचरित्रों और स्वभाव-छवियों को उनकी सम्पूर्ण सम्भावनाओं के साथ प्रस्तुत करता हुआ एक अद्भुत-रोमांचक इतिहास रस की सृष्टि करता है। पृथ्वीवल्लभ’ की लोकप्रियता से प्रेरित होकर, अपने समय के मशहूर फ़िल्मकार सोहराब मोदी ने, 1950 के आसपास, इस पर आधारित इसी नाम से एक फ़िल्म बनाई थी।
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Literature & Fiction, Vani Prakashan, उपन्यास
Priya Taslima Nasrin
धार्मिक कट्टरपंथियों के आंदोलन, हत्या की धमकी और सरकारी गिरफ्तारी के आदेश से विवश होकर तसलीमा नसरीन को भूमिगत होने के लिए देश छोड़ना पड़ा। प्रतिक्रियाशील संगठनों के आंदोलनों के साथ-साथ दुनिया के प्रगतिवादी खेमों में एक और आंदोलन का सूत्रपात हुआ। तसलीमा नसरीन के समर्थन में विभिन्न देशों के विभिन्न भाषाओं के लेखकों ने ‘प्रिय तसलीमा नसरीन’ शीर्षक से पत्र-पत्रिकाओं में खुली चिट्ठी लिखना शुरू किया। कट्टरपंथियों के विरोध में लिखी गयी विचारोत्तेजक चिट्ठियों में से चुनी गयी चिट्ठियों का यह संकलन-प्रिय तसलीमा नसरीन !
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Rajkamal Prakashan, उपन्यास
Rag Darbari
रागदरबारी रागदरबारी जैसे कालजयी उपन्यास के रचयिता श्रीलाल शुक्ल हिंदी के वरिष्ठ और विशिष्ट कथाकार हैं। उनकी कलम जिस निस्संग व्यंग्यात्मकता से समकालीन सामाजिक यथार्थ को परत-दर-परत उघाड़ती रही है, पहला पड़ाव उसे और अधिक ऊँचाई सौंपता है। श्रीलाल शुक्ल ने अपने इस नए उपन्यास को राज-मजदूरों, मिस्त्रियों, ठेकेदारों, इंजीनियरों और शिक्षित बेरोजगारों के जीवन पर केेंद्रित किया है और उन्हें एक सूत्र मंे पिरोए रखने के लिए एक दिलचस्प कथाफलक की रचना की है। संतोषकुमार उर्फ सत्ते परमात्मा जी की बनती हुई चौथी बिल्ंिडग की मुंशीगीरी करते हुए न सिर्फ अपनी डेली-पैसिंजरी, एक औसत गाँव-देहात और ‘चल-चल रे नौजवान’ टाइप ऊँचे संबोधनों की शिकार बेरोजगार जिंदगी की बखिया उधेड़ता है, बल्कि वही हमें जसोदा उर्फ ‘मेमसाहब’ जैसे जीवंत नारी चरित्र से भी परिचित कराता है। इसके अलावा उपन्यास के प्रायः सभी प्रमुख पात्रों को लेखक ने अपनी गहरी सहानुभूति और मनोवैज्ञानिक सहजता प्रदान की है और उनके माध्यम से विभिन्न सामाजिक-आर्थिक अंतर्विरोधों, उन्हें प्रभावित – परिचालित करती हुई शक्तियों और मनुष्य स्वभाव की दुर्बलताओं को अत्यंत कलात्मकता से उजागर किया है। वस्तुतः श्रीलाल शुक्ल की यह कथाकृति बीसवीं शताब्दी के इन अंतिम दशकों र्में ईंट-पत्थर होते जा रहे आदमी की त्रासदी को अत्यंत मानवीय और यथार्थवादी फलक पर उकेरती है।
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Hindi Books, Pustak Mahal, इतिहास, उपन्यास, धार्मिक पात्र एवं उपन्यास
Rahasyamaya Girnar
अध्यात्म की कोख में पली-बढ़ी, अघोर परंपरा हमारी सांस्कृतिक धरोहर है। अघोर परंपरा आज भी पूर्ण चेतना के साथ विद्यमान है। उसकी गूढ़ बातों में अनेक रहस्य छुपे होते हैं। उसके मंत्र-तंत्र के मूल रहस्यों में अनेकानेक गूढ़ार्थ छुपे होते हैं, जो साधु-परंपरा को एक अलग ही ऊँचाई पर रखते हैं। ‘रहस्यमय गिरनार’ पुस्तक इसी अघोर परंपरा के अध्यात्मपूर्ण रहस्य के नजदीक हमें ले जाती है। अध्यात्म क्षेत्र में हमारी अघोर परंपरा में आज भी सैकड़ों सिद्ध साधु-योगी अपने तपोबल से एक चुंबकीय प्रभाव पैदा करते रहते हैं। हमारी इस अघोर परंपरा में कैसी अद्भुत शक्ति छिपी है, यह पढ़कर पाठक अचंभित हो जाएँगे। अघोर परंपरा के अनेक अप्रकट रहस्य इस पुस्तक द्वारा हमारे सामने प्रकट होंगे। कुछ गुप्त बातें साधु परंपरा की मर्यादा में रहकर इस पुस्तक के माध्यम से हमारे सामने आती हैं। अघोर परंपरा के कुछ रहस्य हमें चमत्कार जैसे लगेंगे, मगर वे चमत्कार नहीं वरन् वास्तव में सिद्ध साधुओं के अध्यात्म-अघोर शक्ति का प्रगटीकरण है— यह बात कुछ लोगों की समझ के परे है। पाठकों को योग क्रिया, ध्यान, समाधि इत्यादि परंपरा की अनुभूति पुस्तक पढ़ते समय होती रहेगी।
भारत के प्राण इस संस्कृति और अध्यात्म शक्ति में छिपे हैं और ऐसी अध्यात्म परंपरा ने ही तो भारत को मृत्युंजयी रखा है—यह गौरवबोध करानेवाली रोचक-रोमांचक कृति।SKU: n/a -
Vani Prakashan, उपन्यास
RAJADHIRAJ
‘गुजरात गाथा’ उपन्यास-शृंखला की अन्तिम कड़ी है ‘राजाधिराज’ । 942 ई. में जिस गुर्जर सोलंकी राजवंश की नींव मूलराज सोलंकी ने रखी थी उसे अखण्ड चक्रवर्ती साम्राज्य का पद मिला सन् 1111 में छठवीं पीढ़ी के इतिहास नायक सिद्धराज जयसिंह देव के हाथों। अपने पिता कर्णदेव के निधनोपरान्त जयसिंह सन् 1094 में जब राज्य सिंहासन पर आसीन हुए तब उनकी उम्र थी मात्र 16 वर्ष और शासन की स्थिति बहुत सुदृढ़ नहीं थी। अवंती के मालवराज तो सिर पर सवार ही थे, पाटन के बाहर गुजरात में भी छोटे-छोटे अनेक राजवंश विद्रोही तेवर अपनाये हुए थे। उस सबसे पार पाना आसान नहीं था। किन्तु जयसिंह ने राजमाता मीनल और महामाता मुंजाल के संरक्षण व कुशल मार्गदर्शन में न केवल सभी बाधाओं पर विजय पाई, बल्कि सम्पूर्ण गुजरात को एकसूत्र में बाँधने के साथ-साथ मालव और अजमेर को भी अपनी अधीनता में आने को बाध्य किया। और यह सब मात्र 14 वर्ष की अवधि में। और संवत् 1169 (ई. सन् 1111) की आषाढ़ सुदी प्रतिपदा के शुभ दिन परमभट्टारक महाराजाधिराज जयसिंहदेव वर्मा ने सोमनाथ भगवान के मन्दिर पर कलश चढ़ाया, ‘त्रिभुवन-गंड’ की पदवी धारण की और ‘सिंह’ संवत्सर स्थापित हुआ। ‘राजाधिराज’ इस समग्र अभियान के समापन वर्ष का घटनाबहुल अवलोकन है, जिसमें इतिहास और कल्पना को परस्पर इस तरह गूंथा गया है कि मानव-स्वभाव के, गुणात्मक-ऋणात्मक, सभी रूप साकार होकर पाठकों के मन आलोड़ित कर उठते हैं। इतिहास और संस्कृति के परम विद्वान और महान साहित्यकार कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने गुजरात के मध्यकालीन इतिहास का सबसे स्वर्णिम अध्याय ‘राजाधिराज’ में रूपायित किया है।
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Hindi Books, Prabhat Prakashan, उपन्यास
Ramkatha Aaram
‘जातस्य हि धु्रवोर्मृत्यु ध्रुवजन्म मृतस्य च’, अर्थात् जिसकी मृत्यु निश्चित है, उस मृतक का जन्म भी निश्चित है। हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार व चिंतक-विचारक डॉ. विवेकी राय इस विधान से बाहर कैसे रह सकते थे।
उनके सृजन-संसार का विपुल भंडार साहित्य-जगत् को उपलब्ध है। हालाँकि उनके रचना-कर्म की अमूल्य गठरी में अभी बहुत कुछ है, जिसे लोकमानस तक पहुँचाया जाना शेष है। उसकी एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है बाबूजी की शुचिता और संबंधों के बीच रचना विधान का लोकसृजन करती यह कृति ‘रामकथा आराम’। उनकी यह धरोहर पाठक तक पहुँचे, जिससे साहित्य की विपुल संपदा को और समृद्धि मिले।
सोलह रचनाशिल्पियों की विधागत दक्षता को पन्नों पर उकेरती यह कृति न सिर्फ ऋषि-परंपरा की साहित्यिक विपुलता को आम पाठक वर्ग तक संप्रेषित करेगी बल्कि विविध विधाओं में रचे विधान को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर एक नई दृष्टि का सूत्रपात करेगी।SKU: n/a -
Prabhat Prakashan, उपन्यास
Rangbhoomi
रंगभूमि प्रेमचंद के प्रमुख उपन्यासों में है। इसकी रचना महात्मा गाँधी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर की गई थी। ‘रंगभूमि’ का नायक सूरदास न्याय के लिए आजीवन संघर्ष करता है, फिर भी उसके मन में किसी के प्रति कटुता नहीं है। यह उपन्यास भारत में औद्योगिक संस्कृति की शुरुआत के दौरान साधारण जन की कठिनाइयों का बेबाक चित्रण करता है।
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Hindi Books, Prabhat Prakashan, उपन्यास
Rani Durgavati
कैसा विचित्र समय था? जब हिंदू राजाओं ने अकबर की अधीनता स्वीकार करने के बारे में विचार करना ही त्याग दिया था। वे सीधे शरणागत हो रहे थे। रानी दुर्गावती की दृढ़ता, शासन करने की शैली तथा प्रजा-रंजन बादशाह अकबर को भी चिढ़ाता था। एक विधवा रानी का सुयोग्य शासन उसे खटक रहा था। अकबर ने संदेश भेजा—रानी, पिंजरे में कैद हो जाओ, तभी सुरक्षित रहोगी और वह पिंजरा होगा, मुगल बादशाह अकबर का। सोने का ही सही, पर पिंजरा तो पिंजरा होता है। गुलामी तो गुलामी होती है। कितना निकृष्ट संदेश रहा होगा? रानी दुर्गावती ने इस संदेश के उत्तर में अकबर को उसकी औकात बता दी। रानी संस्कृति की पूजक थीं, ‘गीता’ रानी का प्रिय ग्रंथ था। वह पंडितों से नियमित गीता प्रवचन सुनती थीं। रानी जीना भी जानती थीं और मृत्यु का वरण करना भी। उन्हें पुनर्जन्म पर भी विश्वास था। वह देशाभिमान भी जानती थीं और युद्ध के मैदान में रणचंडी बनना भी। ऐसी मनस्विनी रानी अकबर की नौकरानी कैसे बन सकती थीं?
दुर्गावती की गाथा गोंडवाना की लोककथाओं में जीवित है, उन्हें जन-जन पूजता है। महारानी दुर्गावती के जीवन-चरित्र को अनेक लेखकों ने लिखा है। दुर्गावती के बलिदान स्थल से जन्म स्थल तक अनेक अभिलेख, आलेख तथा पुरातत्त्व के अवशेष मिल जाते हैं। दुर्गावती शोध संस्थान, जबलपुर ने रानी दुर्गावती के जीवन-चरित्र और उनके रेखांकित स्थलों पर अनुसंधान भी किया है। दुर्गावती का जीवनवृत्त सुना, समझा और पढ़ा जा रहा है।
देशाभिमानी, निर्भीक, साहसी क्षत्राणी और विदुषी रानी दुर्गावती का प्रामाणिक जीवन-चरित है यह उपन्यास।SKU: n/a