प्राचीन भारत का इतिहास (प्रारम्भ से 1200 ई. तक) : भारत के विश्वविद्यालयों में इतिहास विषय के स्नातक विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम में प्राचीन भारत का इतिहास सम्मिलित किया जाता है। इस कालखण्ड में मानव सभ्यता के उदय से लेकर मुस्लिम शासकों द्वारा दिल्ली में अपना शासन स्थापित करने से पहले तक का इतिहास आता है। भारतीय इतिहास का यह कालखण्ड अत्यंत रोचक, पठनीय और रोमांचकारी है। घटनाओं का एक चिंरतन प्रवाह इसमें उत्सुकता का संचार करता है किंतु यह आश्चर्य की ही बात है कि विभिन्न विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जा रही अधिकांश पुस्तकों में इसे अत्यंत जटिल और कठिन बनाकर प्रस्तुत किया गया है। सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. मोहनलाल गुप्ता ने विश्वविद्यालयी विद्यार्थियों के लिये इस पुस्तक का लेखन इस प्रकार किया है कि स्नातक पाठ्यक्रम की आवश्यकता पूर्ति के साथ-साथ विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में भी यह समान रूप से उपयोगी सिद्ध हो सके। प्रस्तुत है इस पुस्तक का द्वितीय एवं परिवर्द्धित संस्करण।
Rajasthani Granthagar
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Marwar ka Puratatva aur Sthapatya
मारवाड़ का पुरातत्व और स्थापत्य : प्रस्तुत पुस्तक मारवाड़ का पुरातत्व और स्थापत्य सम्पदा में लेखक ने मारवाड़ की राजधानी जोधपुर एवं इसके आस-पास के क्षेत्र में फैली हुई स्थापत्य वैभव की कलात्मक सम्पदा उजागर किया है। अत्यन्त सुन्दर शैली में चित्रों के साथ प्राचीन मारवाड़ की स्थापत्य सम्पदाएं जिनमें मन्दिर, हवेलियाँ, विभिन्न प्रासादों एवं विशेषकर कुएँ, बावड़ियाँ, तालाबों और झालरों (सीढ़ीदार कुँए) जैसे प्राचीन स्मारकों को इस पुस्तक में संग्रहीत किया गया है।
इस पुस्तक की वैशिष्ट्या यह है कि इसमें मारवाड़ की स्थापत्य कला परम्परा के क्रमिक विकास को दर्शाते हुये सभी प्रकार के स्थापत्य पर प्रकाश डाला गया है। इस पुस्तक को शोध प्रविधियों का अनुसरण करते हुये चार भागों में बाँटा गया हैं, क्रमानुसार ऐतिहासिक भवन, ऐतिहासिक हवेलियाँ, मन्दिर स्थापत्य एवं जल स्रोत स्थापत्य। इन चारों मुख्य भागों में तद्सम्बन्धी विवेचन के साथ ही जोधपुर नगर के विकास के साथ स्थापत्य सम्पदाओं के निर्माण कार्य के क्रम का विस्तारशः वर्णन प्रस्तुत किया गया है।
इस पुस्तक की भूमिका में लेखक ने सभी प्रकार की स्थापत्य श्रेणियों का विस्तार के साथ उल्लेख किया है तथा उसमें प्राचीन काल की परम्पराओं से लेकर वर्तमान तक के स्थापत्य व वास्तु के इतिहास सम्बन्धी विभिन्न बिन्दुओं को समझाने का सराहनीय प्रयास किया है। ऐतिहासिक व सांस्कृतिक नगरी जोधपुर में लेखक ने मारवाड़ की राजधानी की स्थापना से लेकर, वर्तमान काल तक हुये इस नगर के विस्तार एवं नगर के विभिन्न मोहल्लों, चैकों, गलियों के सांस्कृतिक स्वरूप को बड़े ही सुन्दर ढंग से लिपिबद्ध किया है।
प्रस्तुत पुस्तक में न केवल वर्तमान दुर्ग अपितु प्राचीन मण्डोर के दुर्ग एवं वहाँ के देवलों से सम्बन्धित स्थापत्य व उनके अवशेषों को भी वर्णित किया है। मारवाड़ के पूर्व शासकों के स्मारकों का शोधपूर्ण लेखन स्थापत्य कला का वर्णन बहुत ही महत्त्वपूर्ण कार्य है। जोधपुर नगर का परकोटा व ऐतिहासिक द्वारों का इतिहास भी इस पुस्तक में होने से यह पुस्तक मारवाड़ के स्थापत्य इतिहास का आधार ग्रन्थ प्रमाणित होगा। इसका प्रमुख कारण है कि लेखक ने स्थापत्य के सौन्दर्य को ही नहीं वरन् प्रत्येक स्थापत्य के क्रमबद्ध चरणों को भी स्पष्ट रूप से विवेचित किया है।
अतः समग्र रूप से देखा जाय तो यह पुस्तक मारवाड़ की स्थापत्य सम्पदा कला, साहित्य, संस्कृति व स्थापत्य का समन्वित इतिहास है। हमारी पुरा सम्पदा के संरक्षण में यह पुस्तक आदर्श मागदर्शन सिद्ध होगी। पुरा सम्पदा पर जिज्ञासुओं के लिये एक आदर्श ग्रन्थ होगा।SKU: n/a -
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Marwar Ka Raniwas Aur Nari Jeevan
Marwar Ka Raniwas Aur Nari Jeevan
मारवाड़ की राजनीति में जोधपुर के राजा-महाराजाओं ने अपना द्वितीय योगदान दिया है। उन्होंने मारवाड़ की उन्नति व प्रगति के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया, लेकिन उनके इन कार्यों के पीछे उन रानियों, महारानियों, पड़दायतों, पासवानों का बड़ा योगदान था, जो जनानी ड्योढी में निवास करती थीं। Marwar Raniwas Nari Jeevan
प्रस्तुत पुस्तक का उद्देश्य मारवाड़ में पहने जाने वाले वस्त्र व आभूषण जो इसकी वास्तविक संस्कृति के परिचायक हैं, के विविध पक्षों पर प्रकाश डालना है।
राजा-महाराजाओं ने न केवल राज्य के विकास व उन्नति के लिए कार्य किया, अपितु अपने राज्य में विभिन्न कलाकारों व शिल्पियों का भी पूरा प्रोत्साहन दिया।
accordingly पुस्तक में बताया गया है कि किस प्रकार राजवंश में सांस्कृतिक गतिविधियों के संचालन के केन्द्र रूप में जनाना महलों का महत्त्व था। राजपरिवार के लोगों के जीवन के समस्त संस्कार जीवनयापन की पद्धति एवं उनसे जुड़ी सामाजिक धार्मिक भावनाओं की अनुपम अभिव्यक्ति इन जनाना महलों में होती थी। मारवाड़ का रनिवास पर्दे में होने के उपरान्त भी बहुत अधिक समृद्ध था।
मारवाड़ का रनिवास और नारी जीवन
किस प्रकार मारवाड़ नरेश अपने यहां विभिन्न कारखानों द्वारा इन कर्मचारियों को न केवल रोजगार देते थे, बल्कि उनके द्वारा किये गये कार्यों के प्रोत्साहन के लिए उचित इनाम व सम्मान भी देते थे। होनहार व उत्कृष्ट कारीगरों को मारवाड़ में बसने के लिए पूरा गाँव इनाम में देना यह मारवाड़ में कारीगरों के कला को सम्मान देने का बेहतरीन उदाहरण है। surely यहां के पुरालेखीय दस्तावेजों में मारवाड़ रनिवास की बहियाँ जो राजलोक की बहियाँ कहलाती हैं। वे 18वीं शताब्दी के प्रारम्भ में प्राप्त होती हैं। बहियों व तत्कालीन लघुचित्र शैलियों के माध्यम से वस्त्रों एवं आभूषण के बारे में विस्तृत जानकारिया° प्राप्त होती हैं। जनानी ड्योढी की राजमाता व पटरानी की व्यय व्यवस्था हेतु जागीरी निश्चित की जाती थी। इन जागीरों के गा°वों की आय एवं व्यय का सम्पूर्ण हिसाब-किताब रानियों, महारानियों के स्वयं के कामदार करते थे।
Marwar Ka Raniwas Aur Nari Jeevan
तत्कालीन समय के वस्त्र व आभूषण कितने प्रकार के होते थे, उनके बनावट, रंग, सजावट आदि के साथ उनके वस्त्रों व आभूषणों को किन व्यापारियों व सुनारों से खरीदा गया, इसका वर्णन भी हमें मिलता है। at this time उस समय के व्यापारियों, कारीगरों को किस प्रकार मेहनताना दिया जाता था, उनकी आर्थिक स्थिति कैसी थी, के साथ-साथ राज्य की ओर से उन्हें समय-समय पर दिये जाने वाले पारितोषिक की भी जानकारी मिलती है।
all in all यह शोध कार्य नये तथ्यों को उजागर करने के साथ-साथ इसकी रोचक सामग्री, जिसका विश्लेषण करने का मैंने प्रयास किया है, अन्य शोधार्थियों के लिये उपयोगी व रुचिकर होगी। वर्तमान समय में जब वस्त्र व आभूषणों के नित नये प्रकार देखने को मिल रहे हैं, ऐसे समय में बहियों में वर्णित वस्त्रों व आभूषणों की बनावट आज की आधुनिक फैशन व ज्वैलरी इंडस्ट्री के लिए बहुत उपयोगी होंगे।
राजस्थान का इतिहास यहाँ की महिलाओं और पुरुषों के वीरोचित गुणों, त्याग और बलिदान की गाथाओं के कारण जगत प्रसिद्ध है। यहाँ के वीरों राजा महाराजाओं ने मारवाड़ के विकास के लिये प्रत्येक क्षेत्र चाहे राजनैतिक, सांस्कृतिक व आर्थिक प्रगति में अमूल्य योगदान दिया है। जनानी ड्योढ़ी में रहकर भी रानियों ने अपनी जागीर से मिले द्रव्य का सदुपयेाग करके अनेक प्रकार के जन- कल्याणकारी कार्य करवाये जैसे मन्दिर, कुएं, बावड़िया, झालरे, सराय जो आज भी उनकी उज्ज्वल कीर्ति को उजागर कर रही है।
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Rajasthani Granthagar, ऐतिहासिक नगर, सभ्यता और संस्कृति
Marwar mein Jatiya Panchayat aur Samaj
प्रस्तुत पुस्तक ‘मारवाड़ में जातीय पंचायत और समाज’ में राजस्थान की देशी रियासतों में से सबसे बड़ी रियासत जोधपुर राज्य में 1818 से पूर्व लगभग 100 वर्षों में प्रचलित न्याय व्यवस्था की एक पक्ष जातीय पंचायतों की कार्यप्रणाली पर विस्तृत प्रकाश डाला। साथ ही उस समय की विभिन्न जातियों की संस्कृति की विस्तृत विवेचना की, जिसमें यहाँ रहने वाली जातियों के रहन-सहन, रीति-रिवाजों एवं उनमें प्रचलित अनेक प्रथाओं की विषद विवेचना कि हैं। जातीय पंचायतों के स्वरूप, संगठन, प्रकार, कार्य पद्धति एवं उनके क्षेत्राधिकार का विस्तृत वर्णन किया।
इस पुस्तक में लेखक ने जातीय पंचायतों की समाज में भूमिका पर विस्तृत विवेचना के साथ ही जातीय पंचायतों के समक्ष आने वाले प्रमुख वाद एवं उस समय प्रचलित दंड व्यवस्था का विस्तृत उल्लेख भी किया है।
इस काल में सम्बंधित देशी रियासत एवं जातीय पंचायतों के सम्बंधों के बारे में भी बताया तथा समाज में आर्थिक राजनीतिक एवं न्यायिक महत्व के बारे में भी पुस्तक में चर्चा की गई है।
इन मुद्दों को यह जातीय पंचायतें कितना प्रभावित करती थी, इन पर भी पुस्तक में विस्तृत विवेचना की गई है। इस प्रकार लेखक ने अंग्रेजों से आने से पूर्व प्रचलित न्याय व्यवस्था को विस्तृत रूप से बताने का प्रयास किया है, जिससे आधुनिक न्याय प्रणाली एवं पूर्व प्रचलित न्याय प्रणाली के बीच तुलना की जा सके तथा इनके गुण दोषों को भी जाना जा सके। लेखक ने इस विषय पर एक सराहनीय प्रयास किया है।SKU: n/a -
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Mayad Re Aangane
मायड़ रै आंगणै
कमल पग धरती कन्या लियो अवतार
लुगाई जूंण री अबखायां रौ सबळौ दस्तावेज – ‘मायड़ रै आंगणै’ साहित्य में कहाणी विधा री ठावी ठौड़ मानीजै। हरेक रचनाकार आपरै आसै-पासै री घटनावां सूं घणौ प्रभावित व्हिया करै, इणरौ प्रभाव उण रै लेखन में आया करै। नवोदित रचनाकार तरनिजा मोहन राठौड़ द्मत ‘मायड़ रै आंगणै’ कहाणी संग्रै समाजू हालातां सूं अरूबरू करावण रौ अंक सबळौ जतन है। Mayad Re Aangane
दरअसल राजस्थानी साहित्य में ‘वात’ रौ घणौ महताऊ स्थान है। अलेखूं बातां आज ई राजस्थानी जन-मन में बस्योड़ी है। रात री टेम बूढा-बडेरा धूंई रै चौगीड़दै बातां सुणावतां जकौ कई-कई दिन अर रात चालती रैवती। in fact कई लोग मानै कै औ ‘वात साहित्य’ इज आधुनिक काल तक आवतै-आवतै कहाणी रूप में सांम्ही आयौ। पण भारतीय साहित्य रै परिपेख में देखां तौ लागै कै आज री राजस्थानी कहाणी अंग्रेजी साहित्य रै स्टोरी जवतलद्ध सूं हदभांत जुड़ियोड़ी है। जकौ अंग्रेजी सूं बांग्ला अर बांग्ला सूं हिंदी रै मारफत अठै तांई पूगै। हिंदी साहित्य री बात करां तौ सन् उगणीस सौ रै पैले-दूजै दसक में कहाणी पैलीपोत सांम्ही आई। जदकै राजस्थानी ‘वात साहित्य’ अपांरी अंजसजोग जूनी परंपरा है। अठै आ बात उल्लेखजोग हैं कै राजस्थानी साहित्य में शिवचंद्र भरतिया ‘विश्रांत प्रवास’ कहाणी लिख र नवौ आगाज करियौ।
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Rajasthani Granthagar, ऐतिहासिक नगर, सभ्यता और संस्कृति, संतों का जीवन चरित व वाणियां
Meena Samaj ki Kuldeviyan
Rajasthani Granthagar, ऐतिहासिक नगर, सभ्यता और संस्कृति, संतों का जीवन चरित व वाणियांMeena Samaj ki Kuldeviyan
मीणा समाज की कुलदेवियां : मानव आदिकाल से ही शक्ति की उपासना करता आया है। शक्ति का आदि स्वरूप देवी है। यह आद्याशक्ति सनातन शक्ति प्रकृति है, समस्त जगत की उत्पत्ति उसी से हुई, वही विश्व की जननी है। प्रत्येक सम्प्रदाय में देवी की उपासना परम्परा रही है। भारतीय संस्कृति में देवी की महिमा प्रतिष्ठापित है तथा समाज में देवी पूजा की जड़े बहुत गहरी हैं। प्रत्येक कुल की अधिष्टात्री देवी को कुलदेवी के रूप में पूजने की यहाँ परम्परा रही है। इसी कारण हर कुल की अपनी कुलदेवी स्थापित है और वह उस कुल की वंश वृद्धि और समृद्धि की प्रदाता मानी जाती है। प्रस्तुत पुस्तक में लेखक ने प्रयास करके मीणा समाज की 51 कुलदेवियों के सम्बद्ध में जानकारी व परिचय दिया है, जो उत्कृष्ट अन्वेषण के आधार पर आधारित है। मीणा समाज के लिए और उनके गोत्रों की पृथक-पृथक कुलदेवियों सम्बन्धी यह विवरण उपयोगी और पठनीय हैै। इससे मीणा समाज के लोग अवश्य लाभान्वित होंगे।
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Rajasthani Granthagar, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण
Meera Bai : Pramanik Jivani evam Mool Padawali
मीरा बाई : प्रामाणिक जीवनी एवं मूल पदावली : भक्तिमती मीरांबाई के प्रकाशित पदों में से कितने ही पदों की प्रामाणिकता को लेकर उहापोह बनी हुई थी। श्रीसिंहल ने भाषा और स्रोत की प्रामाणिकता के आधार पर मीरांबाई द्वारा रचित मूल पदों का संकलन और सम्पादन करके प्रथम बार सन् 2008 में ‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ के नाम से सटीक छपवाया, जिसमें एक भी पद मौखिक परम्परा का नहीं है; सभी पद लिखित स्रोतों पर आधारित है। प्राचीनतम दो पद विक्रम संवत् 1631 के हैं। गुरुग्रंथ-साहब से विक्रम संवत् 1661 का पद लिया गया है। विक्रम संवत् 1642, 1695, 1701, 1713, 1727 आदि में लिखित ग्रंथों से 128 पद संकलित किए गए है। इस प्रकार, इस संकलन में मीराबाई द्वारा रचित 312 पदों के मूल रूप, संभावित रूप और वर्तमान में प्रचलित पाठ तथा अनेक पदों के उपलब्ध पाठांतर देकर उनकी टीका भी की गई है। टीका में व्याख्या और टिप्पणी भाग अत्यंत महत्वपूर्ण है, जिसमें अनेक सांशयिक ज्ञानों, वाक्यों, पंक्तियों का सप्रमाण, सविस्तार विवेचन है। ग्रंथ में मीराबाई की जीवनी से संबंधित ऐतिहासिक तथ्यों एवं साहित्यिक संदर्भों का विश्लेषण कर तर्कपूर्ण आंकलन प्रस्तुत किया गया है। जीवनी भाग में कई नए प्रामाणिक व इतिहासपुष्ट तथ्यों का उद्घाटन है। ‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ का विद्वत समाज ने दिल खोलकर स्वागत किया। परिमाणतः पुस्तक 3-4 महिने में ही खत्म हो गई। सभी का सुझाव था कि पुस्तक पद्यात्मक न होकर शोधग्रंथ है। अतः इसका नाम शोधग्रंथ परक होना चाहिए। इसीलिए अब यह ग्रंथ ‘मीरांबाई: प्रामाणिक जीवनी एवम् मूल पदावली’ के नाम से प्रकाशित हो रहा है। मुझे विश्वास है कि श्रीसिंहल द्वारा अत्यंत परिश्रमपूर्वक निर्मित प्रस्तुत शोधपरक ग्रंथ साक्षात् भक्तिस्वरूपा मीराबाई की श्रीकृष्णार्पित प्रामाणिक जीवनी और उनके मूल पदों से संबंधित मतांतरों का निराकरण कर सकेगा।
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Rajasthani Granthagar, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण
Meera Sudha Sindhu
मीरा सुधा सिन्धु : 16 विभागों में मीरा-पदों का विभाजन कर प्रत्येक विभाग की भूमिका तथा शब्दार्थ-भावार्थ सहित मीरा के पदों का सबसे बड़ा संग्रह, परम मीरा-भक्त स्वामी आनन्द स्वरूपजी ने सन् 1957 में ‘मीराँ-सुधा-सिन्धु’ ग्रन्थ का प्रकाशन ‘श्री मीराँ प्रकाशन समिति’, भीलवाड़ा द्वारा करवाया था। मीरा जैसी अनन्य कृष्णभक्त एवं साधिका की भक्ति में निहित अध्यात्म, दर्शन, भक्तिशास्त्र और दिव्यप्रेम के भावों को परम मीरा भक्त स्वामी आनन्दस्वरूपजी के अतिरिक्त केवल आचार्य रजनीश ही सही ढ़ंग से व्याख्यायित कर पाये हैं। संशोधित-परिवर्द्धित संस्करण में दो-नये अध्याय जोड़े गये हैं :- (1) स्वामी आनन्द स्वरूपजी का जीवनवृत, तथा (2) ‘मीराँ-सुधा-सिन्धु’ ग्रन्थ का संक्षिप्त परिचय। चूँकि स्वामीजी द्वारा लिखित-सम्पादित मूल ग्रन्थ अब बाजार में उपलब्ध नहीं है, जबकि मीरा के अध्येताओं तथा शोधार्थियों के लिए तो यह ग्रन्थ मीरा को जानने का प्रवेश द्वार है, अतः सुधी पाठकों एवं अध्येताओं के हित में मीरा स्मृति संस्थान, चित्तौड़गढ़ ने राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर के सहयोग से इस ग्रन्थ के पुनः प्रकाशन का निर्णय किया है। हमें विश्वास है कि दो खण्डों में प्रकाशित यह ग्रन्थ अध्येताओं के लिए उपयोगी सिद्ध होगा।
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Hindi Books, Rajasthani Granthagar, इतिहास
Mer Kshatriya Jati ka Itihas
मेर क्षत्रिय जाति का इतिहास :
मनुष्य के जन्म के समय ही उसकी जाति धर्म आदि तय हो जाते हैं। उस समय ना तो वह अपनी जाति के बारे में जानता है और ना ही अपने धर्म के बारे में। मनुष्यों के द्वारा ही धर्म और जातियों को बनाया गया।
हिन्दू धर्म में कर्म को प्रधानता दी गई है। यदि आप पुश्तैनी कर्म को छोड़कर अन्य कर्म अपनाते है तो उसी क्षण आपकी जाति बदल जायेगी। यह कर्म ही तो है जो नये-नये समाज का निर्माण करते आये है। वैश्य, क्षत्रिय, ब्राह्मण, शूद्र आदि का निर्माण कर्म के आधार पर ही तो हुआ है एवं इस कार्य प्रधान हिन्दू धर्म में किसी जाति के निर्माण में किसी दूसरी जाति या व्यक्ति का कोई दोष नहीं है। यह तो अमूक जाति के महापुरुषों के कर्मों की देन है और आज उन्हीं महापुरुषों के वंशज वर्तमान जाति में निवास करते हैं।
भारत देश में हिन्दू धर्म की प्रधानता है। हिन्दू धर्म में पहले तो कर्म के आधार पर वर्ण और जातियाँ तय होती थी लेकिन अब हिन्दू धर्म का विभाजन दलित और स्वर्ण के रूप में उभर कर सामने आया है। आज़ादी के बाद नये वर्गों सामान्य वर्ग, अन्य पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजातियाँ आदि का निर्माण हिन्दू धर्म के लिए घातक साबित हुआ है।
कोई भी जाति दलित नहीं है, उनके कर्म ही उनको दलित बनाते हैं। कोई भी जाति स्वर्ण नहीं है, उनके कर्म ही उनको पूजनीय बनाते हैं। इस देश में कोई दलित नहीं कोई स्वर्ण नहीं है। राजनीति ने हिन्दू समाज को बिखेर दिया है। जातियों का जब मैनें अध्ययन किया तो चैकाने वाले तथ्य सामने आये।
मीणा जाति मध्यप्रदेश के श्योपुर एवं आस-पास के जिलों में अन्य पिछड़ा वर्ग में है एवं राजस्थान की तरह अनुसूचित जनजाति में नहीं। उनके साथ ऐसा कोई भेद भाव नहीं किया जाता है। इतिहास की नज़र से देखा जाए तो मीणा जाति ने हाड़ाओं से पहले हाड़ौती व कछवाहों से पहले ढुँढाढ़ पर राज्य किया था।
कोली (शाक्य, महावर) जाति राजस्थान राज्य में अनुसूचित जाति में आती है लेकिन गुजरात राज्य में अन्य पिछड़ा वर्ग में आते हैं। स्वतंत्रता संग्राम में गुजरात के कोली समाज ने योगदान दिया था। मांधाता कोली का गुजरात में राज्य हुआ करता था। उत्तराखण्ड में कोली राजपूत होते हैं। भगवान बुद्ध स्वयं क्षत्रिय राज्य कोली वंश के राजकुमार थे।
गुर्जर जाति कश्मीर में अनुसूचित जनजाति में शामिल है जबकि राजस्थान में अन्य पिछड़ा वर्ग में है। इतिहास में गुर्जर जाति को प्रतिहार राजवंश से जोड़कर देखा जाता है। वैष्णव सम्प्रदाय के लोग ब्राह्मण होते हैं, जो सामान्य वर्ग में आते हैं लेकिन कोटा के ग्रामीण अंचल में वैष्णव बाबाजी अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल है। राजपूत सामान्य वर्ग में आते हैं लेकिन कई क्षेत्रों के राजपूत जैसे सोंधिया (मालवा), रावत (मेवाड़-मारवाड़) राजपूत अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल है।
ऐसी ही कई सैकड़ों जातियाँ हैं, जो एक क्षेत्र में कथित दलित समुदाय का हिस्सा है तो अन्य क्षेत्रें में कथित स्वर्ण समाज के रूप में देखी गई हैं।
अगर इस बात को समझ लिया जाए तो दलित-स्वर्ण के झगड़े हमेशा के लिए समाप्त हो सकते हैं। कर्म से व्यक्ति दलित या स्वर्ण हो सकता है लेकिन जाति से कोई भी दलित या स्वर्ण नहीं हो सकता हैं।SKU: n/a -
Rajasthani Granthagar, इतिहास, ऐतिहासिक नगर, सभ्यता और संस्कृति
Mewar ki Gaurav Gathayen
मेवाड़ की गौरव गाथाएँ : ‘मेवाड़’ शक्ति, शौर्य, पराक्रम एवं बलिदान के इतिहास का वह एक नाम है, जिसकी परम पावन माटी का कण–कण अपने में निहित पवित्रता का आभास कराता है और जन–जन अपने माथे पर गौरव–तिलक लगाने के लिए स्वतः प्रेरित होता है। स्मरण रहे कि हर युग में यहाँ का व्यक्ति मातृभूमि के लिए सर्वस्व समर्पण हेतु सदैव तत्पर रहा है। एक से बढ़कर एक बलिदानियों के कई स्वर्णिम पृष्ठ मेवाड़ के इतिहास से जुड़े है। पद्मावती का अद्भुत जौहर, पन्ना–कृष्णा का अमर त्याग, गोरा–बादल जैसे युवा व बाल योद्धाओं का युद्ध कौशल, भामाशाह का महादान तो अमरचन्द बड़वा का बलिदान आज सम्पूर्ण जगत के लिऐ प्रेरणा–स्रोत बना हुआ है।
पुस्तक के लखन एवं प्रकाशन का यही उद्देश्य है कि मेवाड़ की यह थाती जन–जन तक पहुँचे और विरोचित मूल्य का प्रकाश सर्वत्र बिखरे। साथ ही यह लिखते हुए भी हर्ष का अनुभव हो रहा है कि श्री तरुण देश–प्रदेश के सुनाम इतिहासकार के साथ ही वरिष्ठ साहित्यकार भी हैं, अतः प्रस्तुत गौरव गाथाओं में इतिहास के साथ–साथ साहित्य की अनुभूति का आनन्द भी मिलेगा। इसी आशा एवं विश्वास के साथ…SKU: n/a -
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Mewar Thikana Dastavejo Ka Sarvekshan
मेवाड़ ठिकाना दस्तावेजों का सर्वेक्षण
संसार के सारे दीप बुझ जाते है, किन्तु साहस द्वारा इतिहास के भाल पर लिखी गई लिपि की ज्योति कभी मन्द नहीं होती। पुरालेखीय स्त्रोत इतिहास लेखन में विश्वसनीय माने जाते है क्योंकि इसका निर्माण करने वाले व्यक्ति घटनाओं के समकालीन एवं प्रत्यक्षदर्शी रहे होते है। accordingly इस पुस्तक में मुख्यतः मेवाड़ के ठिकानों से प्राप्त पुरालेखीय सामग्री को आधार बनाकर 16वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी तक के मेवाड़ के इतिहास के विभिन्न पक्षों का लेखन किया गया है। ठिकाना दस्तावेज किसी भी दृष्टि से अभिलेखागार में सुरक्षित सामग्री से कम नहीं है। also इस सामग्री का इतिहास लेखन में उपयोग करके इतिहास लेखन को प्रामाणिक बनाना आवश्यक है। इस ग्रन्थ में राजनैतिक इतिहास के साथ सामाजिक, धार्मिक, प्रशासनिक, सामन्त व उनके विशेषाधिकार, मेवाड़ की भूमि व्यवस्था व आपसी सम्बंधों को बतलाया गया है। Mewar Thikana Dastavej Sarvekshan
इस ग्रन्थ के माध्यम से इतिहासकारों का ध्यान ठिकाना दस्तावेज़ों की ओर आकृष्ट करने का प्रयास किया गया है। यदि समय रहते इनका उपयोग कर लेखन में सम्मिलित नहीं किया गया तो पुरामहत्त्व की सामग्री नष्ट हो जायेगी। पूर्व जागीरदारों के वंशज इसके महत्त्व से अपरिचित जान पड़ते हैं। so इसलिए इसे सुरक्षित एवं संरक्षित करने का प्रयास भी नहीं कर रहे। सरकार को इन्हें संकलित कर सुरक्षित करने का प्रयास किया जाना चाहिए, जिससे शोधार्थियों द्वारा इसका उपयोग किया जा सके तथा नये विषयों की जानकारी इतिहास में सम्मिलित कर उसे पुष्ट करने में मदद मिले। यही इस ग्रन्थ की उपलब्धि होगी।
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Muhnot Nainsi Ki Khyat (Set of Vol.2)
मुँहणोत नैणसी की ख्यात (हिन्दी अनुवाद) :
राजस्थान के इतिहास का सर्वाधिक विश्वसनीय स्त्रोत ‘मुँहणोत नैणसी री ख्यात’ है। जोधपुर के महाराजा जसवंत सिंह के देश दीवान नैणसी द्वारा 17वीं शताब्दी में लिखित मूल ख्यात राजस्थानी गद्य में लिखी गई। उस काल की भाषा अपेक्षाकृत अधिक शुद्ध मारवाड़ी होने के कारण किसी अन्य भाषा के प्रभाव से मुक्त थी, अतः वर्तमान शोधकर्ताओं के लिए दुरूह थी। बाबू रामनारायण दूगड़ जैसे उच्चकोटि के विद्वान ने इसका हिंदी अनुवाद कर भावी शोधार्थियों के लिए इस महत्त्वपूर्ण ग्रंथ का उपयोग सुलभ कर दिया है। राजस्थान के सुप्रसिद्ध इतिहासकार पं. गौरीशंकर हीराचंद ओझा द्वारा संपादित किये जाने से इस हिंदी अनुवाद का महत्त्व अत्यधिक बढ़ गया है। ओझाजी ने नैणसी की त्रुटियों को अपने गहन-गंभीर ऐतिहासिक अध्ययन के आधार पर पाद-टिप्पणियों में शुद्ध किया है, जो शोधकर्ताओं के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। नैणसी ने अपनी ख्यात में राजपूताना, गुजरात, काठियावाड़ कच्छ, बघेलखंड, बुंदेलखंड और मध्य भारत के इतिहास को अपने ग्रंथ के कलेवर में समाहित करने का प्रयास किया है। प्रस्तुत ग्रंथ में उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा और प्रतापगढ़ राज्यों के सिसोदियों (गुहिलोतों), रामपुरा के चंद्रावतों (सिसोदियों की एक शाखा), खेड़ के गुहिलों, जोधपुर, बीकानेर और किशनगढ़ के राठौड़ों, जयपुर के कच्छवाहों, सिरोही के देवड़ा चौहानों, बूंदी के हाड़ों तथा बागड़िया, सोनगरा, सांचोरा, बोड़ा, ताँपलिया, खीची, चीबा, मोहिल आदि चौहानों की भिन्न-भिन्न शाखाओं यादवों और उनकी सरवैया, जाड़ेचा आदि कच्छ और काठियावाड़ की शाखाओं, गुजरात के चावड़ों तथा सोलंकियों, गुजरात और बघेलखंड के बघेलों (सोलंकियों की एक शाखा), काठियावाड़ और राजपूताना के झालों, दहियों, गौड़ों, कायमखानियों आदि का विस्तृत इतिहास लिखा है। ‘नैणसी री ख्यात’ प्राचीनतम ख्यात तो है ही, साथ ही इसका महत्त्व ओझाजी के इस कथन से आंका जा सकता है कि यदि कर्नल जेम्स टॉड को नैणसी की ख्यात उपलब्ध होती तो निश्चय ही उसका ग्रंथ और अधिक प्रामाणिक और विश्वसनीय बन जाता। ‘नैणसी री ख्यात’ के महत्त्व को स्वीकार करते हुए प्रसिद्ध इतिहासकार मुंशी देवी प्रसाद ने उसे राजपूताना का अबुल फजल कहा है, तो कालिकारंजन कानूनगो ने नैणसी को अबुल फजल से अधिक श्रेष्ठ इतिहासकार बताया है। ‘नैणसी री ख्यात’ का यह हिंदी अनुवाद राजस्थान की परंपराओं और इतिहास में रुचि रखने वाले सामान्य जिज्ञासुओं के साथ ही इतिहास के गहन-गंभीर अध्येताओं तथा शोधार्थियों के लिए सहेजकर रखने योग्य सिद्ध होगा।SKU: n/a -
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Mukandas Khichi
मुकनदास खीची : मारवाड़ के वीर शिरोमणि मुकनदासजी खीची के बारे में लोगों को अभी तक अधिक जानकारी नहीं है। इस पुस्तक के माध्यम से मुकनदास खीची की कीरत कथा उजागर करना हमारा उद्देश्य है, साथ ही आज की पीढ़ी जिस तेजी के साथ अपनी भाषा, इतिहास, रीति-रिवाज, अदब-कायदा व संस्कृति से परे होती जा रही है, उनको भी मुकनदास के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से परिचित कराना भी है।
मुकनदास खीची को इतिहास में जो स्थान मिलना चाहिए था नहीं मिला, उन्हें इतिहास से गौण कर दिया गया। पांडवों का एक वर्ष का अज्ञातवास कितना कठिन था जबकि मुकनदास खीची के सात वर्ष बालक महाराजा अजीतसिंह की जोगी के भेष में सुरक्षा, पल-पल की नजर रखना कितना कठिन कार्य था। वहीं दुर्गादास राठौड़ युद्ध करना, कूटनीति, राजपूतों को संगठित करना और महाराजा को खोया राज्य पुन: दिलाना के लिए प्रयासों में लगे रहे, तो दूसरी तरफ मुकनदास पर महाराजा को औरंगजेब की नजरों से बचाने का महत्वपूर्ण दायित्व था। अगर मुकनदास अपने कार्य में तनिक भी असफल हो जाते तो क्या दुर्गादास राठौड़ का उक्त कार्य सफल होता, ये दोनों ही एक सिक्के के दो पहलू हैं।
प्रस्तुत पुस्तक में इन्हीं सब पहलुओं पर विद्वानों ने अपने विचार व्यक्त करते हुए मुकनदास के बहुमुखी व्यक्तित्व एवं कृतित्व को उजागर किया है, जो समस्त खीची बंधुओं, शोधार्थियों, इतिहास के अध्येताओं, एवं सामान्य पाठकों के लिए उपयोगी सिद्ध होगा।SKU: n/a -
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Mumal
राजस्थानी भासा री कहाणियां लिखण मै रानीजी रौ धीजै-पतीजै जैडौ धणियाप। आपरी कहाणियां रै बूतै माथै राजस्थानी भासा रै सबद-संसार, भाव-मीठास ने कैवण वाला बातपोंसा सूं सुणियोड़ी, ख्यातां-बातां में बाचियोड़ी अर नवी उपजी बातां ने रानीजी सरावण जोग नवै अटंग ढंग-ढालै लिखी। लिखण री गजब निकेवली आंट रै पांण आपरी कहाणियां रा पात्र साचलका लखावण लागै। लक्ष्मीकुमारी चूण्डावत री कहाणियां री अेक खास घसक आ क उणां मे राजस्थान रै कण कण री आतमा पलका मारै। Mumal Laxmi Kumari Chundawat
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Hindi Books, Rajasthani Granthagar, इतिहास
Naari : Mahabhara Mahakavya Ke Alok Mein
नारी : महाभारत महाकाव्य के आलोक में : महाभारत महाकाव्य मानव जीवन के विविध पक्षों को समाविष्ट करता है। प्रस्तुत पुस्तक में सामाजिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्र में नारी के अवदान को महाभारत के आलोक में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। नारी ने अपनी प्रतिभा तथा क्षमता से जीवन को गौरवान्वित किया है। परिवार, समाज तथा राष्ट्र के प्रति व्यक्ति के कर्त्तव्यों को दिशानिर्देश दिया है। जननी, पत्नी, पुत्री तथा भगिनी के रूप में उसने पुत्र, पति, पिता तथा भ्राता आदि को विकट परिस्थिति में सम्बल प्रदान किया है। उसका मार्गदर्शन प्रेरणास्पद है। नारी के अवदान के बिना समाज तथा राष्ट्र की प्रगति तथा उन्नति अकल्पनीय है। अपार ऊर्जा से सम्पन्न नारी ने बाधाओं को पार करने में अपनी प्रतिभा को उजागर किया है। उसका बहुआयामी चरित्र प्रशंसनीय तथा वन्दनीय है।
पारिवारिक तथा सामाजिक परिप्रेक्ष्य में नारी का चिन्तनमनन दिशा-बोध से संयुक्त है। कला तथा संस्कृति को जीवन्त रखने में उसका अनुदान प्रशंसनीय है । राजनीतिक तथा सामरिक पटल पर उसकी ऊर्जा, साहस तथा धैर्य अविस्मरणीय हैं, जीवित-जागृत राष्ट्र की वह प्रतीक है। उसके हाथों में प्रत्यक्ष रूप से शासनाधिकार न होने पर भी उसने राजनीतिक पटल पर अपनी अमिट छाप अंकित की है।
महाभारत महासमर पर दृष्टिपात किया जाये तो यह स्पष्ट है कि नारी का अपमान करना क्षम्य नहीं है। द्रौपदी के अपमान की गूंज महाभारत के सभी पर्यों में सुनायी पड़ती है। कौरवपाण्डव महासमर में भूमि-स्वामित्व का प्रश्न दोनों पक्षों को विचलित करता रहा। कटु वचन, प्रतिशोध का भाव, जातिगत द्वेष की अग्नि तथा कुल-कलह महाभारत युद्ध के आधार बने । महासमर में कौरव पक्ष नि:शेष हो गया। महाभारत महासमर में जन-धन की अपार क्षति हुई, निष्कर्ष रहा – न युद्धे तात कल्याणं न धर्मार्थो कुतः सुखम् ।
प्रस्तुत पुस्तक महाभारत महाकाव्य के अध्ययन विषयक लेखिकाओं के गहन अध्ययन तथा नवीन व्याख्या की परिचायक है । बहुआयामी दृष्टिकोण से महाभारत की व्याख्या का प्रयास सराहनीय है।
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Hindi Books, Rajasthani Granthagar, इतिहास
Poogal ka Itihas
पूगल का इतिहास इससे पहले कभी नहीं लिखा गया था, जब मैं इस विषय में गहराई से गया तब मुझ में स्वतः एक आत्म-विश्वास और भाटी होने का गौरव घर करता गया। अब मुझे ज्ञान हुआ कि पूगल के सामने अन्य राजवंशों के इतिहास क्या थे और उनमें सच्चाई कितनी थी? पूगल का इतिहास अपने आप में इतना उज्ज्वल है कि किसी तथ्य को छिपाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी; हां, कुछ पड़ोसी राज्यों के इतिहास पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता पड़ सकती है। इस पुस्तक को तीन खण्डों में विभक्त किया गया है।
खण्ड अ : पृष्ठभूमि में भाटियों के गजनी से जैसलमेर तक के राज्यों का वर्णन है। भाटियों के आदिपुरुष राजा भाटी सन् 279 ई. में लाहौर में हुए थे। गजनी से जैसलमेर तक भाटियों की 9 राजधानियां रही, पूृगल 10वीं है।
खण्ड ब : सिंहावलोकन में पूगल का इतिहास संक्षेप में दिया गया है। भाटियों के मुलतान व अन्यों से सम्बंध, भटनेर के उत्थान और पतन की कहानी भी है। मेवाड़ की पड्डिनी रावल पूनपाल की बेटी थी।
खण्ड स : पूगल का इतिहास में पूगल के सत्ताईस रावों का वर्णन है। राव केलण, चाचगदेव का राज्य भटनेर, सिन्ध व सतलज नदियों के पश्चिम के क्षेत्रों तक में था। इनकी मुसलमान राणियों के पुत्रों के वंशज भट्टी मुसलमान हैं। राव सुदरसेन ने रावल रामचन्द्र को देरावर का राज्य दिया था, जो सन् 1763 ई. में बहावलपुर राज्य बन गया। पूगल के सात राव युद्धों में मारे गए थे। मुगलों के समय पूगल एक स्वतंत्र राज्य था, बाद में यह बीकानेर के संरक्षण में आ गया। इसके बाद का इतिहास केवल स्थानीय घटनाओं का वर्णन है।SKU: n/a -
Rajasthani Granthagar, इतिहास, ऐतिहासिक नगर, सभ्यता और संस्कृति
Pratiharon ka Mool Itihas
प्रतिहारों का मूल इतिहास : भारत के इतिहास में कुछ वंश बहुत महत्त्वपूर्ण रहे हैं, उनके साम्राज्य बड़े विस्तृत थे और उन्होंने साहित्य का बड़ा प्रसार किया। कुछ वंशों ने, जिनको जिस धर्म में आस्था थी, उसको बहुत फैलाया, परन्तु क्षत्रिय सभी धर्मों के प्रति उदार और सहिष्णु थे। शासक वर्ग जिस धर्म को मानता था, उसके अलावा अन्य धर्मों को संरक्षण प्रदान करते थे एवं दान-पुण्य देकर प्रोत्साहन देते थे। भारत के महान सम्राज्यों में प्रतिहारों का भी एक बड़ा साम्राज्य रहा है। इसकी एक विशेषता रही है कि जैसे मौर्य, नागवंश तथा गुप्तवंश आदि थे, उनके विरोधी दुश्मन एक तरफ ही थे, जिससे उपरोक्त वंशों के शासकों को अपने राज्यों तथा साम्राज्य के एक ही दिशा में शत्रु का सामना करना पड़ता था, जिससे वे सफल भी रहे। परन्तु प्रतिहारों के पश्चिम में खलीफा जैसी विश्वविजयी शक्ति से इनका मुकाबला चलता था। दक्षिण में राष्ट्रकूटों (राठौड़ों) से टक्कर थी, जो किसी भी सूरत में इनसे कम शक्तिशाली नहीं थे। पूर्व में बंगाल के पाल भी इनके शत्रु थे, वे इन जितने शक्तिशाली नहीं थे, फिर भी प्रतिहारों को उनसे युद्धों में व्यस्त रहना पड़ता था। अरब जो कि इनके शत्रु थे, उनके एक व्यापारी ने लिखा है कि प्रतिहारों को अपने साम्राज्य की समस्त दिशाओं में (चारों ओर) लाखों की संख्या में सैनिक रखने पड़ते है। इस प्रकार मौर्य, नागों और गुप्तों के मुकाबले में प्रतिहारों की शक्ति का आंकलन किया जाये तो प्रतिहारों की शक्ति उनसे अधिक होना सिद्ध होता है।
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English Books, Rajasthani Granthagar, इतिहास, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण
Prithviraj Chauhan and His Times
-15%English Books, Rajasthani Granthagar, इतिहास, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरणPrithviraj Chauhan and His Times
Prithviraj Chauhan and His Times : My aim in writing this book is to study the struggle of Prithviraj Chauhan III against the Turks and to highlight the cultural activities of that period. The scholars stress exclusively on the chronicles of the Muslim-Court annalists who familiarized us with the invader’s version of conquest. The heroic resistance offered by the Chauhan rulers and other Rajputs residing on the border areas has not so far been studied in correct perspective. The Goverdhan and other memorial inscriptions are very important. These were engraved in order to commemorate the heroic deeds of those brave persons, who gave away their lives while fighting against the invaders in order to rescue “cows women and religious shrines”. good number of such inscriptions are still available on the border areas of Rajasthan. I have utilised some of these inscriptions for the first time.
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Prithviraj Raso Set Of 4
पृथ्वीराज रासो
महाकवि चन्द बरदाई कृत
रासो साहित्य में महाकवि चन्द बरदाई कृत पृथ्वीराज रासो सर्वश्रेष्ठ काव्य रचना है। उसके लिये यह कहना उचित ही होगा कि उसका स्वरूप समय-समय पर परिवर्द्धित होता रहा है, जिससे भाषा के आधार पर उसके रचनाकाल का निर्णय करने में अनेक उलझने उत्पन्न होती है। इतना होते हुए भी काव्य की दृष्टि से वह बहुत ही प्रौढ़ रचना है। ऐसे महत्त्वपूर्ण महाकाव्य का अनुवाद और संपादन का कार्य कविराव मोहनसिंह जैसे विद्वत व्यक्तित्व वाला व्यक्ति ही कर सकता था। कविराव मोहनसिंह ने न केवल ग्रंथ का संपादन किया बल्कि शब्दार्थ तथा हिन्दी अनुवाद कर ग्रंथ को आम पाठकों तक चार खण्डों में सुलभ कराया। Prithviraj Chauhan, Rajput (Prithviraj Raso Chand Bardai)
इस पुस्तक को पढ़ने में चौहान जाति को अपने पूर्वजों के कृत्यों पर गौरव का अनुभव होगा, अन्य लोगों को भी चौहान जाति को जानने का मौका मिलेगा।
in fact उल्लेखनीय है कि आज भी गजनी शहर में बादशाह गौरी की कब्र के साथ सम्राट पृथ्वीराज तथा कवि चंद बरदाई की समाधियाँ मौजूद है, जो उस ऐतिहासिक घटना की मूक गवाह हैं।
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Prithviraj Vijay Mahakavyam
महाकवि श्रीजयानक रचित : पृथ्वीराजविजयमहाकाव्यम् (हिन्दी) : संस्कृत भाषा में विरचित जीवनीपरक ऐतिहासिक महाकाव्यों की श्रृंखला में काश्मीर निवासी महाकवि श्री जयानक द्वारा प्रणीत पृथ्वीराजविजय महाकाव्यम् शीर्षक ग्रन्थ अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। भूर्जपत्र पर लिखित इस ग्रंथ की पाण्डुलिपि की पहली खोज डॉ. जी. बूह्लर द्वारा सन् 1876 में की गई थी, जब वे संस्कृत की प्राचीन पाण्डुलिपियों का पता लगाने के लिए काश्मीर गये थे। उन्होंने तत्सम्बद्ध सम्पूर्ण सामग्री ‘डेक्कन कॉलेज, पुना’ को सुपुर्द कर दी, जिनका विवरण उस कॉलेज की सन् 1875-76 की 150वीं संख्या पर उल्लिखित है। डॉ. बूह्लर ने अपनी शोधयात्रा का विस्तृत प्रतिवेदन प्रस्तुत करते समय इस बात पर हार्दिक दुःख प्रकट किया है कि संस्कृत के अमर ग्रन्थों की पाण्डुलिपियों की वर्तमान दुर्दशा निस्संदेह हमारे लिए दुर्भाग्य की सूचक है।
डॉ. बूह्लर की समग्र रिपोर्ट का गम्भीर अध्ययन करने के पश्चात् स्वर्गीय पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने और पूर्वतः म.म.पं. गौरीशंकर ओझा ने तदनंतर ‘पृथ्वीराजविजय महाकाव्य’ का सुसम्पादित संस्करण वि. संवत् 1995 में वैदिक यंत्रालय, अजमेर से प्रकाशित कराया, जिसमें जोनराज विरचित ‘विवरणोपेत टीका’ भी जोड़ दी गई थी। इस प्रकार यह ग्रंथ साहित्यप्रेमीयों और इतिहासविदों के समक्ष प्रथम बार आ सका, जो इस समय पर लुप्तप्राय सा हो चुका है। उसे पुनः प्रकाशित करने के उद्देश्य से ही हमने पुनर्मुद्रण का यह उपक्रम किया है।
‘पृथ्वीराज विजय महाकाव्य’ प्रथमवार हिन्दी भावानुवाद के साथ प्रकाशित किया जा रहा है। इस महाग्रन्थ का प्रामाणिक अनुवाद किया है, संस्कृत के ख्यातिप्राप्त अनुवादक एवं अधिकारी विद्वान प्रो. पं. मदनमोहन शर्मा (शाण्डिल्य) ने, जिससे यह ग्रन्थ अध्येताओं के लिए और अधिक उपयोगी हो गया है। डॉ. ओझा ने पुस्तक के ‘आमुख’ में ऐसे अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्य उद्घाटित किये हैं, जिनसे इस महाकाव्य की महत्ता और उपयोगिता प्रकट होती है।SKU: n/a