Vani Prakashan
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Vani Prakashan, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण
Nahin, Kahin Kuchh Bhi Nahin…
TASLIMA NASRIN
तसलीमा नसरीन बांग्लादेश की लेखिका हैं। उनकी आत्मकथा का 6वां खंड ‘नहीं,कहीं कुछ भी नहीं..’ के रोप में पाठकों के सामने है जिसे उन्होने अपनी माँ को समर्पित किया है। जिसमे उनके जीवन के वो पल मौजूद है जो उनकी माँ को केंद्र में रख कर लिखे हैं।
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Vani Prakashan, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण
Nahin, Kahin Kuchh Bhi Nahin…
TASLIMA NASRIN
तसलीमा नसरीन बांग्लादेश की लेखिका हैं। उनकी आत्मकथा का 6वां खंड ‘नहीं,कहीं कुछ भी नहीं..’ के रोप में पाठकों के सामने है जिसे उन्होने अपनी माँ को समर्पित किया है। जिसमे उनके जीवन के वो पल मौजूद है जो उनकी माँ को केंद्र में रख कर लिखे हैं।
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Vani Prakashan, उपन्यास
NIBANDHON KI DUNIYA
प्रेमचन्द का रचना-कर्म साहित्य और जीवन की दूरी पाटने की मुहिम है। उनका समस्त लेखन अपने परिवेश के प्रति जागरूक, उस रचनाकार की अभिव्यक्ति है जिसके विचारों में सत्य की ऊर्जा है और दृष्टि में परिवर्तन की चाह। वे आजीवन मानते रहे कि साहित्य वह मशाल है जिसकी रोशनी सामाजिक जीवन की राहों में उजाला करती है। वह समाज का अनुसरण ही नहीं करती बल्कि उसका दिशा निर्देश करती है। प्रेमचन्द का साहित्य जीवन के उच्चादर्शों, सामाजिक सचाइयों, राष्ट्रीय-सांस्कृतिक एकता के गौरवपूर्ण बिन्दुओं से झलमलाता है। सुलझी हुई सामाजिक समझ और मानवीय गरिमा के उन्नयन की बेचैनी, उन्हें हम सबका अपना लेखक बनाती है जिन पर न केवल हिन्दी साहित्य को बल्कि समूची भारतीय परम्परा को नाज़ है।
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Vani Prakashan, धार्मिक पात्र एवं उपन्यास, महाभारत/कृष्णलीला/श्रीमद्भगवद्गीता
Nirbandh : Mahasamar – 8
Vani Prakashan, धार्मिक पात्र एवं उपन्यास, महाभारत/कृष्णलीला/श्रीमद्भगवद्गीताNirbandh : Mahasamar – 8
नरेन्द्र कोहली
निर्बन्ध, महासमर का आठवाँ खण्ड है। इसकी कथा द्रोण पर्व से आरम्भ होकर शान्ति पर्व तक चलती है। कथा का अधिकांश भाग तो युद्धक्षेत्र में से होकर ही अपनी यात्रा करता है। किन्तु यह युद्ध केवल शस्त्रों का युद्ध नहीं है। यह टकराहट मूल्यों और सिद्धान्तों की भी है और प्रकृति और प्रवृत्तियों की भी। घटनाएँ और परिस्थितियाँ अपना महत्त्व रखती हैं। वे व्यक्ति के जीवन की दिशा और दशा निर्धारित अवश्य करती हैं; किन्तु यदि घटनाओं का रूप कुछ और होता तो क्या मनुष्यों के सम्बन्ध कुछ और हो जाते? उनकी प्रकृति बदल जाती? कर्ण को पहले ही पता लग जाता कि यह कुन्ती का पुत्र है तो क्या वह पाण्डवों का मित्र हो जाता? कृतवर्मा और दुर्योधन तो श्रीकृष्ण के समधी थे, वे उनके मित्र क्यों नहीं हो पाये? बलराम श्रीकृष्ण के भाई होकर भी उनके पक्ष से क्यों नहीं लड़ पाये? अन्तिम समय तक वे दुर्योधन की रक्षा का प्रबन्ध ही नहीं, पाण्डवों की पराजय के लिए प्रयत्न क्यों करते रहे? ऐसे ही अनेक प्रश्नों से जूझता है यह उपन्यास। इस उपन्यास शृख़ला का पहला खण्ड था बन्धन और अन्तिम खण्ड है आनुषंगिक। बन्धन भीष्म से आरम्भ हुआ था और एक प्रकार से निर्बन्ध भीष्म पर ही जाकर समाप्त होता है। किन्तु अलग-अलग प्रसंगों में एकाधिक पात्र नायक का महत्त्व अंगीकार करते दिखाई देते हैं। शान्ति पर्व के अन्त में भीष्म तो बन्धनमुक्त हुए ही हैं, पाण्डवों के बन्धन भी एक प्रकार से टूट गये हैं। उनके सारे बाहरी शत्रु मारे गये हैं। अपने सम्बन्धियों और प्रिय जनों से भी अधिकांश को भी जीवनमुक्त होते उन्होंने देखा है। पाण्डवों के लिए भी माया का बन्धन टूट गया है। वे खुली आँखों से इस जीवन और सृष्टि का वास्तविक रूप देख सकते हैं। अब वे उस मोड़ पर आ खड़े हुए हैं, जहाँ वे स्वर्गारोहण भी कर सकते हैं और संसारारोहण भी। प्रत्येक चिन्तनशील मनुष्य के जीवन में एक वह स्थल आता है; जब उसका बाहरी महाभारत समाप्त हो जाता है और वह उच्चतर प्रश्नों के आमने-सामने आ खड़ा होता है। पाठक को उसी मोड़ तक ले आया है ‘महासमर’ का यह खण्ड ‘निर्बन्ध’।
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Vani Prakashan, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण
Nirvasan
तसलीमा नसरीन की ‘निर्वासन’ एक स्त्री का दिल दहला देने वाला ऐसा सच्चा बयान है जिसमें वह खुद को अपने घर बंग्लादेश, फिर कलकत्ता (पश्चिम बंगाल) और बाद में भारत से ही निर्वासित कर दिए जाने पर, दिल में वापसी की उम्मीद लिए पश्चिमी दुनिया के देशों में एक यायावर की तरह भटकते हुए अपना जीवन बिताने के लिए मजबूर कर दिए जाने की कहानी कहती है। इसमें उन दिनों में लेखिका के दर्द, घुटन और कशमकश के साथ धर्म, राजनीति और साहित्य की दुनिया की आपसी मिली भगत का कच्चा चिट्ठा सामने आता है। कई तथाकथित संभ्रान्त चेहरे बेनकाब होते हैं। बंग्लादेश में जन्मी लेखिका तसलीमा नसरीन, जो मत प्रकाश करने के अधिकार के पक्ष में पूरे विश्व में एक आन्दोलन का नाम हैं और जो अपने लेखन की शुरुआत से ही मानवतावाद, मानवाधिकार, नारी-स्वाधीनता और नास्तिकता जैसे मुद्दे उठाने के कारण धार्मिक कट्टरपंथियों का विरोध झेलती रही हैं, की आत्मकथा के तीसरे खण्ड -‘द्विखण्डतो’ पर केवल इस आशंका से की इससे एक सम्प्रदाय विशेष के लोगों की धार्मिक भावनाएँ आहत हो सकती हैं, पश्चिम बंगाल की सरकार ने प्रतिबन्ध लगा दिया। पूरे एक साल नौ महीने छब्बीस दिन निषिद्ध रहने के बाद, हाईकोर्ट के फैसले पर यह पुस्तक इस प्रतिबन्ध से मुक्त हो सकी। पश्चिम बंगाल और बंग्लादेश में अलग-अलग नामों से प्रकाशित इस पुस्तक के विरोध में उनके समकालीन लेखकों ने कुल इक्कीस करोड़ रुपए का दावा पेश किया। पर यह सब कुछ तसलीमा को सच बोलने और नारी के पक्ष में खड़ा होने के अपने फैसले से डिगा नहीं सका। ‘निर्वासन’ भी इसी की एक बानगी है।
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Vani Prakashan
Pachrang Chola Pahar Sakhi Ri
मीरां की कविता को सदियों तक लोक ने अपने सुख-दुःख और भावनाओं की अभिव्यक्ति के माध्यम की तरह बरता इसलिए यह धीरे-धीरे ऐसी हो गयी कि सभी को उसमें अपने लिए जगह और गुंजाइश नजर आने लगी और इससे साँचों-खाँचों में काट-बाँट कर अपनी-अपनी मीरांएँ गढ़ने का सिलसिला शुरू हो गया। धार्मिक आख्यानकार केवल उसकी भक्ति पर ठहर गये, जबकि उपनिवेशकालीन इतिहासकारों ने उसके जीवन को अपने हिसाब से प्रेम, रोमांस और रहस्य का आख्यान बना दिया। वामपन्थियों ने केवल उसकी सत्ता से नाराजगी और विद्रोह को देखा, तो स्त्री विमर्शकारों ने अपने को केवल उसके साहस और स्वेच्छाचार तक सीमित कर लिया। इस उठापटक और अपनी-अपनी मीरां गढ़ने की कवायद में मीरां का वह स्त्री अनुभव और संघर्ष अनदेखा रह गया जो उसकी कविता में बहुत मुखर है और जिसके संकेत उससे सम्बन्धित आख्यानों, लोक स्मृतियों और इतिहास में भी मौजूद हैं। ‘पचरंग चोला पहर सखी री’ में मीरां के छवि निर्माण की प्रक्रियाओं को समझने के साथ विभिन्न स्रोतों में उपलब्ध उसके स्त्री अनुभव और संघर्ष के संकेतों की पहचान और विस्तार का प्रयास है। मीरां इतिहास, आख्यान, लोक और कविता में से किसी एक में नहीं है-वह इन सभी में है, इसलिए उसकी खोज और पहचान में यहाँ इन सभी ने गवाही दी है। मीरां का स्वर हाशिए का नहीं, उसके अपने जीवन्त और गतिशील समाज का सामान्य स्वर है। यह वह समाज है जो मीरां को होने के लिए जगह तो देता ही है, उसको सदियों तक अपनी स्मृति और सिर-माथे पर भी रखता है।
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Vani Prakashan
Pachrang Chola Pahar Sakhi Ri
मीरां की कविता को सदियों तक लोक ने अपने सुख-दुःख और भावनाओं की अभिव्यक्ति के माध्यम की तरह बरता इसलिए यह धीरे-धीरे ऐसी हो गयी कि सभी को उसमें अपने लिए जगह और गुंजाइश नजर आने लगी और इससे साँचों-खाँचों में काट-बाँट कर अपनी-अपनी मीरांएँ गढ़ने का सिलसिला शुरू हो गया। धार्मिक आख्यानकार केवल उसकी भक्ति पर ठहर गये, जबकि उपनिवेशकालीन इतिहासकारों ने उसके जीवन को अपने हिसाब से प्रेम, रोमांस और रहस्य का आख्यान बना दिया। वामपन्थियों ने केवल उसकी सत्ता से नाराजगी और विद्रोह को देखा, तो स्त्री विमर्शकारों ने अपने को केवल उसके साहस और स्वेच्छाचार तक सीमित कर लिया। इस उठापटक और अपनी-अपनी मीरां गढ़ने की कवायद में मीरां का वह स्त्री अनुभव और संघर्ष अनदेखा रह गया जो उसकी कविता में बहुत मुखर है और जिसके संकेत उससे सम्बन्धित आख्यानों, लोक स्मृतियों और इतिहास में भी मौजूद हैं। ‘पचरंग चोला पहर सखी री’ में मीरां के छवि निर्माण की प्रक्रियाओं को समझने के साथ विभिन्न स्रोतों में उपलब्ध उसके स्त्री अनुभव और संघर्ष के संकेतों की पहचान और विस्तार का प्रयास है। मीरां इतिहास, आख्यान, लोक और कविता में से किसी एक में नहीं है-वह इन सभी में है, इसलिए उसकी खोज और पहचान में यहाँ इन सभी ने गवाही दी है। मीरां का स्वर हाशिए का नहीं, उसके अपने जीवन्त और गतिशील समाज का सामान्य स्वर है। यह वह समाज है जो मीरां को होने के लिए जगह तो देता ही है, उसको सदियों तक अपनी स्मृति और सिर-माथे पर भी रखता है।
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Vani Prakashan, अन्य कथेतर साहित्य, कहानियां
Parinde
निर्मल वर्मा की कहानियों के प्रभाव के पीछे जीवन की गहरी समझ और कला का कठोर अनुशासन है। बारीकियाँ दिखाई नहीं पड़ती हैं तो प्रभाव की तीव्रता के कारण अथवा कला के सघन रचाव के कारण। एक बार दिशा-संकेत मिल जाने पर निरर्थक प्रतीत होने वाली छोटी-छोटी बातें भी सार्थक हो उठती हैं, चाहे कहानी हो चाहे जीवन। कठिनाई यह है कि दिशा-संकेत निर्मल की कहानी में बड़ी सहजता से आता है और प्रायः ऐसी अप्रत्याशित जगह जहाँ देखने के हम अभ्यस्त नहीं। क्या जीवन में भी सत्य इसी प्रकार अप्रत्याशित रूप से यहीं कहीं साधारण से स्थल में निहित नहीं होता? निर्मल ने स्थूल यथार्थ की सीमा पार करने की कोशिश की है। उन्होंने तात्कालिक वर्तमान का अतिक्रमण करना चाहा है, उन्होंने प्रचलित कहानी-कला के दायरे से बाहर निकलने की कोशिश की है, यहाँ तक कि शब्द की अभेद्य दीवार को लाँघकर शब्द के पहले के ‘मौन जगत्’ में प्रवेश करने का भी प्रयत्न किया है और वहाँ जाकर प्रत्यक्ष इन्द्रिय-बोध के द्वारा वस्तुओं के मूल रूप से पकड़ने का साहस दिखलाया है।
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Vani Prakashan, उपन्यास
PATAN KA PRABHUTVA
‘पाटन का प्रभुत्व’ प्रख्यात साहित्यकार कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी की महत्वाकांक्षी उपन्यास माला ‘गुजरात गाथा’ का प्रथम पुष्प है और इतिहास प्रसिद्ध गुर्जर साम्राज्य के अन्तिम गौरवपूर्ण अध्याय को गल्प रूप में उभारता है। गुर्जर साम्राज्य के संस्थापक मूलराज सोलंकी (942-997 ई.) ने अपने यशस्वी कार्यों से अनहिलवाड़ पाटन का नाम समूचे देश में गुँजा दिया था। उन्हीं की पाँचवीं पीढ़ी में कर्णदेव (1072-1094) सत्तासीन हुआ। उसने अपनी स्वतन्त्र राजनगरी कर्णावती स्थापित की। उसका विवाह चन्द्रपुर की जैन राजकुमारी मीनल से हुआ और उससे जयदेव नाम का एक पुत्ररत्न प्राप्त हुआ, जिसे आगे चल कर सिद्धराज के विरुद से विभूषित होकर कीर्तिपताका फहरानी थी। ‘पाटन का प्रभुत्व’ के प्रथम दृश्य का उद्घाटन 1092 के उस कालखण्ड में होता है जब कर्णदेव असाध्य बीमारी से ग्रस्त होकर शैया पर मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा है और शासन का दायित्व राजरानी मीनलदेवी की ओर से उसका जैन परामर्शदाता और महामंत्री मुंजाल मेहता वहन कर रहा है। यह समय गुर्जर साम्राज्य के लिए अत्यन्त संवेदनशील है। एक ओर आसपास के असन्तुष्ट और महत्वाकांक्षी जैन श्रावकों के हौसले बढ़े हुए हैं। वे आनन्दसरि को आगे करके अपने ही धर्म की राजमहिषी और महामन्त्री पर दबाव बनाने की फ़िराक में हैं। दूसरी ओर कर्णदेव के सौतेले भाई क्षेमराज का पुत्र देवप्रसाद आसपास के राजपूत छत्रपों का अगुआ बन कर शासनपीठ पर अधिकार जमाना चाह रहा है। इन विपरीत परिस्थितियों में महामन्त्री मुंजाल की विश्वसनीयता. दूरदर्शिता और विवेक बुद्धि से, कर्णदेव के निधन के तत्काल बाद, युवराज जयसिंह देव का राज्याभिषेक होता है और सत्तापीठ पर छाये आशंका के बादल छंट जाते हैं। यही जयसिंह देव आगे चलकर ताम्रचड़ाध्वज सिद्धराज के विरुद से गुर्जर साम्राज्य को नवजीवन देते हैं। मात्र दो वर्ष के कालखण्ड में सिमटा होने के बावजूद यह उपन्यास सत्ता के संघर्ष और उससे जुड़े दाँव-पेंचों को इतने रोमांचक ढंग से प्रस्तुत करता है कि पाठक अन्तिम पृष्ठ की अन्तिम पंक्ति से पहले छोड़ने का नाम नहीं लेता।
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Vani Prakashan, अन्य कथा साहित्य, इतिहास, ऐतिहासिक उपन्यास
Patna Khoya Hua Shahar
अपनी मृत्यु के कुछ महीने पहले बुद्ध ने पाटलिपुत्र की महानता की भविष्यवाणी की थी। कालान्तर में पाटलिपुत्र मगध, नन्द, मौर्य, शुंग, गुप्त और पाल साम्राज्यों की राजधानी बनी। पाटलिपुत्र के नाम से विख्यात प्राचीन पटना की स्थापना 490 ईसा पूर्व में मगध सम्राट अजातशत्रु ने की थी। गंगा किनारे बसा पटना दुनिया के उन सबसे पुराने शहरों में से एक है जिनका एक क्रमबद्ध इतिहास रहा है। मौर्य काल में पाटलिपुत्र सत्ता का केन्द्र बन गया था। चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य बंगाल की खाड़ी से अफ़ग़ानिस्तान तक फैला हुआ था। मौर्यों के वक़्त से ही विदेशी पर्यटक पटना आते रहे। मध्यकाल में विदेशों से आने वाले पर्यटकों की संख्या में काफ़ी वृद्धि हुई। यह वह वक़्त था जब पटना की शोहरत देश की सरहदों को लाँघ विदेशों तक पहुँच गयी थी। यह मुग़ल काल का स्वर्णिम युग था। पटना उत्पादन और व्यापार के केन्द्र के रूप में देश में ही नहीं विदेशों में भी जाना जाने लगा। 17वीं सदी में पटना की शोहरत हिन्दुस्तान के ऐसे शहर के रूप में हो गयी थी, जिसके व्यापारिक सम्बन्ध यूरोप, एशिया और अफ्रीका जैसे महादेशों के साथ थे। ईस्ट इण्डिया कम्पनी और ब्रिटिश इण्डिया में पटना और उसके आसपास के इलाकों में शोरा, अफीम, पॉटरी, चावल, सूती और रेशमी कपड़े, दरी और कालीन का उत्पादन बड़े पैमाने पर होता था। पटना के दीघा फार्म में तैयार उत्पादों की जबरदस्त माँग लन्दन के आभिजात्य लोगों के बीच थी। विदेशी पर्यटक और यात्री कौतूहल के साथ पटना आते। उनके संस्मरणों में तत्कालीन पटना सजीव हो उठता है। इस पुस्तक में उनके संस्मरण और कई अन्य रोचक जानकारियाँ मिलेंगी।
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Vani Prakashan, कहानियां
Pichhli Garmiyon Mein
निर्मल वर्मा बार-बार अपनी रचना-संवेदना के परिचित दायरों की ओर वापस लौटते हैं। हर बार चोट की एक नयी तीव्रता के साथ लौटते हैं और जितना ही लौटते हैं, उतना ही वह कुछ जो परिचित है और भी परिचित, आत्मीय और गहरा होता जाता है। अनुभव के ऊपर की फालतू परतें छिलती जाती हैं और रचना अपनी मूल संवेदना के निकट अधिक पारदर्शी होती जाती है। निर्मल वर्मा की रचना की पारदर्शी चमड़ी के नीचे आप उस अनुभव को धड़कते सुन सकते हैं, छू सकते हैं। यह अनुभव बड़ा निरीह और निष्कवच है। आपको लगता है कि यह अपनी कला की पतली झिल्ली के बाहर की बरसती आग और बजते शोर की जरब नहीं सह पाएगा। – मलयज
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Vani Prakashan, धार्मिक पात्र एवं उपन्यास, महाभारत/कृष्णलीला/श्रीमद्भगवद्गीता
Prachchhann : Mahasamar – 6
Vani Prakashan, धार्मिक पात्र एवं उपन्यास, महाभारत/कृष्णलीला/श्रीमद्भगवद्गीताPrachchhann : Mahasamar – 6
नरेन्द्र कोहली
महाकाल असंख्य वर्षों की यात्रा कर चुका, किन्तु न मानव की प्रकृति परिवर्तित हुई है, न प्रकृति के नियम। उसका ऊपरी आवरण कितना भी भिन्न क्यों न दिखाई देता हो, मनुष्य का मनोविज्ञान आज भी वही है, जो सहस्तों वर्ष पूर्व था। बाह्य संसार के सारे घटनात्मक संघर्ष वस्तुतः मन के सूक्ष्म विकारों के स्थूल रूपान्तरण मात्र हैं। अपनी मर्यादा का अतिक्रमण कर जाएँ तो ये मनोविकार, मानसिक विकृतियों में परिणत हो जाते हैं। दुर्योधन इसी प्रक्रिया का शिकार हुआ है। अपनी आवश्यकता भर पा कर वह सन्तुष्ट नहीं हुआ। दूसरों का सर्वस्व छीनकर भी वह शान्त नहीं हुआ। पाण्डवों की पीड़ा उसके सुख की अनिवार्य शर्त थी। इसलिए वंचित पाण्डवों को पीड़ित और अपमानित कर सुख प्राप्त करने की योजना बनायी गयी। घायल पक्षी को तड़पाकर बच्चों को क्रीड़ा का-सा आनन्द आता है। मिहिरकुल को अपने युद्धक गजों को पर्वत से खाई में गिराकर उनके पीड़ित चीत्कारों को सुनकर असाधारण सुख मिला था। अरब शेखों को ऊँटों की दौड़ में, उनकी पीठ पर बैठे बच्चों की अस्थियाँ टूटने और पीड़ा से चिल्लाने को देख-सुनकर सुख मिलता है। महासमर-6 में मनुष्य का मन अपने ऐसे ही प्रच्छन्न भाव उद्घाटित कर रहा है। दुर्वासा ने बहुत तपस्या की है, किन्तु न अपना अहंकार जीता है, न क्रोध। एक अहंकारी और परपीड़क व्यक्तित्व, प्रच्छन्न रूप से उस तापस के भीतर विद्यमान है। वह किसी के द्वार पर आता है, तो धर्म देने के लिए नहीं। वह तमोगुणी तथा रजोगुणी लोगों को वरदान देने के लिए और सतोगुणी लोगों को वंचित करने के लिए आता है। पर पाण्डव पहचानते हैं कि तपस्वियों का यह समूह जो उनके द्वार पर आया है, सात्विक संन्यासियों का समूह नहीं है। यह एक प्रच्छन्न टिड्डी दल है, जो उनके अन्न भंडार को समाप्त करने आया है, ताकि जो पाण्डव दुर्योधन के शस्त्रों से न मारे जा सके, वे अपनी भूख से मर जाएँ। दुर्योधन के सुख में प्रच्छन्न रूप से बैठा है दुख; और युधिष्ठिर की अव्यावहारिकता में प्रच्छन्न रूप से बैठा है धर्म। यह माया की सृष्टि है। जो प्रकट रूप में दिखाई देता है, वह वस्तुतः होता नहीं, और जो वर्तमान है, वह कहीं दिखाई नहीं देता। पाण्डवों का अज्ञातवास, महाभारत-कथा का एक बहुत आकर्षक स्थल है। दुर्योधन की गृध्र दृष्टि से पाण्डव कैसे छिपे रह सके? अपने अज्ञातवास के लिए पाण्डवों ने विराटनगर को ही क्यों चुना? पाण्डवों के शत्रुओं में प्रच्छन्न मित्र कहाँ थे और मित्रों में प्रच्छन्न शत्रुओं कहाँ पनप रहे थे?…ऐसे ही अनेक प्रश्नों को समेटकर आगे बढ़ती है, महासमर के इस छठे खण्ड ‘प्रच्छन्न’ की कथा।
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Vani Prakashan, धार्मिक पात्र एवं उपन्यास, महाभारत/कृष्णलीला/श्रीमद्भगवद्गीता
Pratyaksh : Mahasamar – 7
Vani Prakashan, धार्मिक पात्र एवं उपन्यास, महाभारत/कृष्णलीला/श्रीमद्भगवद्गीताPratyaksh : Mahasamar – 7
नरेन्द्र कोहली
महासागर’ हमारा काव्य भी है, इतिहास भी और अध्यात्म भी। हमारे प्राचीन ग्रंथ शाश्वत सत्य की चर्चा करते हैं। वे किसी कालखंड के सीमित सत्य में आबद्ध नहीं हैं, जैसा कि यूरोपीय अथवा यूरोपीयकृत मस्तिष्क अपने अज्ञान अथवा बाहरी प्रभाव में मान बैठा है। नरेंन्द्र कोहली ने न महाभारत को नए संदर्भो में लिखा है, न उसमें संशोधन करने का कोई दावा है। न वे पाठको को महाभारत समझाने के लिए, उसकी व्याख्या कर रहे हैं। नरेन्द्र कोहली यह नहीं मानते कि महाकाल की यात्रा, खंडों में विभाजित है, इसलिए जो घटनाए घटित हो चुकी हैं, उनमें अब हमारा कोई संबन्ध नहीं है, उनकी मान्यता है कि न तो प्रकृति के नियम बदले हैं, न मनुष्य का मनोविज्ञान। मनुष्य की अखंड कालयात्रा को इतिहास खंड़ों में बाँटे तो बाँटे, साहित्य उन्हें विभाजित नहीं करता, यद्यपि ऊपरी आवरण सदा ही बदलते रहते हैं।
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Literature & Fiction, Vani Prakashan, इतिहास
Pratyancha : Chhatrapati Shahooji Maharaj Ki Jeevangatha
Literature & Fiction, Vani Prakashan, इतिहासPratyancha : Chhatrapati Shahooji Maharaj Ki Jeevangatha
राजनीतिक गुलामी से भी त्रासद होती है सामाजिक गुलामी। कुछ इसे मानते हैं, कुछ नहीं। जो मानते हैं उनमें भी इसका उच्छेद करने की पहल करने का नैतिक साहस बहुधा नहीं होता। औरों की तरह शाहूजी के जीवन में भी यह त्रासदी प्रकट हुई। राजा थे, चाहते तो आसानी से इससे पार जाने का मानसिक सन्तोष पा सकते थे। मगर नहीं, उन्होंने अपनी व्यक्तिगत त्रासदी को सामूहिक त्रासदी में देखा और मनुष्य की आत्मा तक को जला और गला देने वाली इस मर्मान्तक घुटन और पीड़ा को सामूहिक मुक्ति में बदल देने का संकल्प लिया।
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