Vani Prakashan Books
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Vani Prakashan, अन्य कथेतर साहित्य, कहानियां, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण
Cheeron Par Chandani
निर्मल वर्मा के गद्य में कहानी, निबन्ध, यात्रा-वृत्त और डायरी की समस्त विधाएँ अपना अलगाव छोड़कर अपनी चिन्तन-क्षमता और सृजन-प्रक्रिया में समरस हो जाती हैं…आधुनिक समाज में गद्य से जो विविध अपेक्षाएँ की जाती हैं, वे यहाँ सब एकबारगी पूरी हो जाती हैं। -डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी / निर्मल वर्मा के यहाँ संसार का आशय सम्बन्धों की छाया या प्रकाश में ही खुलता है, अन्यथा नहीं। सम्बन्धों के प्रति यह उद्दीप्त संवेदनशीलता उन्हें अनेक अप्रत्याशित सूक्ष्मताओं में भले ले जाती हो, उनको ऐसा चिन्तक-कथाकार नहीं बनाती जिसका चिन्तन अलग से हस्तक्षेप करता चलता हो। वे अर्थों के बखान के नहीं, अर्थों की गूंजों और अनुगूगूँजों के कथाकार हैं।
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Vani Prakashan, रामायण/रामकथा
Chhattisgarh ke LokJeevan Mein Ram
संत तुलसीदास के राम एक थे, दुष्टता का पर्याय रावण एक था। उस समय की रामायण बहुत सरल थी और आज की रामायण? वर्तमान की रामायण उस रामायण से कहीं ज्यादा कठिन है, यही बात कवि की इस “ इतने राम कहा से लाऊँ” में दिखाई देता है। और यह सच है कि ‘ राम कि एक अवधी निश्चित थी, अपने दिवस अनिश्चित हैं। छत्तीसगढ़ के निवासियों में राम-राम, जय राम, सीताराम का अभिवादन सुनकर स्पष्ट हो जाता है कि राम कहना हमारी जिह्वा का स्वभाव है और स्वभाव इसलिए है क्योंकि राम छत्तीसगढ़ कि आत्मा में बसे हुए हैं।
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Literature & Fiction, Vani Prakashan
CHHOTE CHHOTE DUKH
मापकाठी आख़िर किसके हाथ में है? औरत की सीमा या सीमाहीनता का फ़ैसला आख़िर कौन करेगा? यह हक़ क्या मर्द को है? यानी मर्द ही क्या समाज का। नियन्ता है? पुरुष-आधिपत्यमय समाज, क़दम-क़दम पर औरत का चरम अपमान करता है। अधिकांश मर्द ही यह समझते हैं कि औरत भोग की वस्तु है। धर्म ने। औरत को मर्द की दासी बनाया है। अपमान का भारी बोझ ढोते-ढोते औरत किसी वक्त आविष्कार करती है। कि उसकी छाती में बूँद- बूँद करके, दुःख और यन्त्रणा का पहाड़ जम गया है। इस पहाड़ को अपनी दोनों बाँहों। से धकियाते-ढकेलते औरत आज क्लान्त और बेजार है। लेकिन किसी की भी ज़िन्दगी की कहानी, यहीं ख़त्म नहीं होती। लेखिका को विश्वास है, वे सपने देखती हैं, औरत आग बन जाए। इस पुरुष-नियंत्रित समाज पर वह जवाबी अघात करे। जो कुछ चरम है, खुद चरमपन्थी बनकर ही, औरत जंग करे। ‘रानी बिटिया’ या ‘रानी-बहू’ बनकर या अनुगृहीत होकर जीने-रहने के दिन अब गुज़र गये। औरत के असहनीय दुःख-यन्त्रणा के कंकड़-पत्थर से ही उसकी मुक्ति और युक्ति की राह तैयार हो। अपनी अन्यान्य किताबों की तरह, तसलीमा नसरीन ने अपनी इस पुस्तक में भी कामना की है- ‘औरत इन्सान है-यही औरत का पहला और आखिरी परिचय हो।’ बंगलादेश में सन् 1994 में यह किताब पहली बार प्रकाशित हुई थी। कॉलम का रचनाकाल है 1992-93 । निर्वासित जीवन की शुरुआत के बाद, लेखिका के और-और कुछेक कॉलम भी बंगलादेश और पश्चिम बंगाल के अख़बारों में प्रकाशित हुए। ‘छोटे-छोटे दुःख’ में उनकी पहले की और परवर्ती विभिन्न समयों में प्रकाशित कुछेक रचनाएँ संगृहीत की गयी हैं।
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Vani Prakashan, अन्य कथेतर साहित्य, कहानियां, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण
Chitthiyon Ke Din
निर्मल वर्मा जितना मौन पसन्द थे, उतना ही संवाद-प्रिय- इसे मानने के पर्याप्त कारण हैं, विशेषकर उनके पत्रों की इस तीसरी पुस्तक के अवसर पर। एक आत्मीय स्पेस में लिखे गये ये पत्र अलग-अलग व्यक्तियों को लिखे जाने के बावजूद पारिवारिक ऊष्मा लिये हुए हैं। निस्संग रहते हुए भी निर्मल कितना दूसरों के संग थे, उनकी व्यावहारिक परिस्थितियों से लेकर उनकी सर्जनात्मक आकुलता तक, ये पत्र इसके साक्षी हैं। अधिकतर ये पत्र, विशेषकर रमेशचन्द्र शाह और ज्योत्स्ना मिलन के नाम, सन् अस्सी के दशक में लिखे गये पत्र हैं। यह वह दूसरी दुनिया थी, जो देखने पर बाहर से दिखायी नहीं देती। इसमें उनका अकेलापन था और अपनी व्यक्तिगत लेखकीय नियति का सामना करने की तैयारी। निर्मल वर्मा आज यदि अलग दिखते हैं, तो अपने जीने या सहने में नहीं। इस सब जंजाल के जो अर्थ वह अपने लेखन से दे पाये उसमें। दूसरों से संवाद में ही जीवन का यह अति-यथार्थ सँभल पाता है, सहनीय हो पाता है ये पत्र इसका दस्तावेज़ है। निर्मल वर्मा के शोधार्थियों और पाठकों को इन पत्रों में उनके रचना-संसार के कई नये अन्तःसूत्र मिलेंगे, ऐसा निश्चित है।
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Hindi Books, Vani Prakashan, इतिहास
Coolie Lines
कुली लाइन्स
हिन्दमहासागर के रियूनियन द्वीप की ओर 1826 ई. में मज़दूरों से भरा जहाज़ बढ़ रहा था। यह शुरुआत थी भारत की। जड़ों से लाखों भारतीयों को अलग करने की। क्या एक विशाल साम्राज्य के लालच और हिन्दुस्तानी बिदेसियों के संघर्ष की यह गाथा भुला दी जायेगी? एक सामन्तवादी भारत से अनजान द्वीपों पर गये ये अँगूठा-छाप लोग आख़िर किस तरह जी पायेंगे? उनकी पीढ़ियों से। हिन्दुस्तानियत ख़त्म तो नहीं हो जायेगी?लेखक पुराने आर्काइवों, भिन्न भाषाओं में लिखे रिपोर्ताज़ों और गिरमिट वंशजों से यह तफ़्तीश करने निकलते हैं। उन्हें षड्यन्त्र और यातनाओं के मध्य खड़ा होता एक ऐसा भारत नज़र आने लगता है, जिसमें मुख्य भूमि की वर्तमान समस्याओं के कई सूत्र हैं। मॉरीशस से कनाडा तक की फ़ाइलों में ऐसे कई राज़ दबे हैं, जो ब्रिटिश सरकार पर ग़ैर-अदालती सवाल उठाते हैं। और इस ज़िम्मेदारी का अहसास भी कि दक्षिण अमरीका के एक गाँव में भी वही भोजन पकता है, जो बस्ती के एक गाँव में। ‘ग्रेट इंडियन डायस्पोरा’ आख़िर एक परिवार है, यह स्मरण रहे। इस किताब की यही कोशिश है।
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Literature & Fiction, Vani Prakashan
Desh Ke Hit Mein
नरेन्द्र कोहली
‘‘सत्य महाराज।’’ ललित ने हाथ जोड़ दिए, ‘‘किन्तुु क्या सरकार जानती है कि उसके जीवन के मूल में एक वोटर है और वह किसी भी दिन उसे छोड़ देगा; और सरकार के प्राण निकल जाएँगे।’’ ‘‘वोटर सरकार का शरीर बनाता है, सरकार की आत्मा तो उसका अंग्रेजों के द्वारा बनाया गया कार्यालय-तंत्रा है। वह शाश्वत है। वोटर उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता।’’ ‘‘किन्तुु सरकार का शरीर भी तो मरेगा, उसकी पेंशन का क्या होगा?’’ ललित ने कहा। ‘‘मंत्रियों और सांसदों को पेंशन मिलेगी। उस पेंशन के अनेक रूप हैं, हरि के अनेक रूपों के समान। आप जैसे हरि को नहीं समझ सकते, वैसे ही सरकार को भी नहीं समझ सकते।’’ वे रुके, ‘‘अच्छा, अब इस चर्चा को छोड़िए और अपने जीवित होने के प्रमाण का नहीं, प्रमाणपत्रा का प्रबन्ध कीजिए।’’ आगन्तुकों को विदा कर ललित अपने मुहल्ले के पार्षद के पास पहुँचा, ‘‘देखिए, मैं जीवित हूँ।’’ ‘‘देख रहा हूँ।’’ ‘‘तो मुझे मेरे जीवित होने का एक प्रमाणपत्रा दे दीजिए।’’ ‘‘आप जीवित हैं तो फिर प्रमाणपत्रा की क्या आवश्यकता है? आपका जीवन ही आपका सबसे बड़ा प्रमाण है।’’ ‘‘देखिए, हमारे देश में एक सरकार है। उसके कार्यालय में एक फाइल है। वह फाइल मुझे वेतन देती है। उस फाइल को मेरे जीवित होने का एक प्रमाणपत्रा चाहिए, नहीं तो वह मेरा वेतन बन्द कर देगी। वह फाइल मुझे नहीं पहचानती, केवल प्रमाणपत्रा को पहचानती है। प्रमाणपत्रा के बिना तो स्वामी विवेकानन्द भी अमरीका में नहीं पहचाने गये थे।’’ ‘‘आप महान हैं; स्वामी विवेकानन्द के समान महान हैं। उनके पास भी प्रमाणपत्रा नहीं था और आपके पास भी नहीं है।’’ वह बोला, ‘‘उन्हें प्रो. हेनरी जॉन राइट ने एक प्रमाणपत्रा दिया था। आप भी प्रो. हेनरी जॉन राइट के पास चले जाइए, वे आपको भी प्रमाणपत्रा दे देंगे। उनसे कम का कोई प्रमाणपत्रा आपको शोभा भी नहीं देता।’’ ‘‘पर हमारी सरकारी फाइलें क्या प्रो. हेनरी जॉन राइट को पहचान लेंगी?’’ ‘‘क्यों नहीं, हेनरी जॉन राइट पहले अपने जीवित होने का प्रमाणपत्रा प्रस्तुत करें।’’ और ललित प्रो. हेनरी जॉन राइट की खोज में निकल पड़ा… (पुस्तक अंश)
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Literature & Fiction, Vani Prakashan
DEVI
The capability of reading and other personal skills get improves on reading this book Devi by SuryaKant Tripathi Nirala.This book is available in Hindi with high quality printing.Books from Novel category surely gives you the best reading experience.
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Vani Prakashan, कहानियां
Devpriya
लगभग पिछली एक शताब्दी से समूची भारतीय आलोचना और अभी भी क्षीण रूप से सक्रिय शास्त्र-रचना की एक बड़ी कमजोरी यह रही है कि उसने शास्त्रीय कलाओं, उनमें आये महत्वपूर्ण परिवर्तनों और उनके माध्यम से पुनर्नवा होती परम्परा पर बहुत कम ध्यान दिया है। शास्त्रीय नृत्य और संगीता दोनों ही इस दुर्लक्ष्यता के शिकार रहे हैं। दोनों ही कलाओं में बहुत सारे परिवर्तन आये हैं, नये प्रभाव ‘सक्रिय और नवाचार हुए हैं: यह सब कई स्तरों पर। ‘विचारोत्तेजक’ है – खेद यही है कि ऐसी विचारोत्तेजना ने हमारी आलोचना में बहुत कम अपने होने का कोई साक्ष्य दिया है। इस सन्दर्भ में हमारे समय की एक महत्वपूर्ण और विचारशील सोनल मानसिंह पर एकाग्र यह पुस्तक हिन्दी में ही नहीं समूचे भारतीय परिदृश्य में अपना अलग स्थान रखती है। एक बहुश्रुत और स्पष्टभाषी कलाकार से संवाद पर आधारित यतीन्द्र मिश्र की यह पुस्तक पहल है, जो मार्गदर्शी भी है। एक कलाप्रेमी कवि का एक वरिष्ठ नर्तकी से संवाद अपने आप में रोमांचक और अभूतपूर्व है। वो एक स्तर पर दो। भिन्न सर्जनात्मकताओं के बीच संवाद भी है। सोनल मानसिंह की भावप्रवणता और कलाकौशल शुरू से ही विचार-पगे रहे हैं। उन्हें शास्त्रीय नृत्य के क्षेत्र में। ‘सक्रिय रहने का अनुभव है उनकी नागरिकता सिर्फ़ शास्त्र-विहित मामला नहीं है। वह अनेक क्षेत्रों के ‘सस्पर्श और उनसे संवाद-सम्पर्क में रही है। इस कारण ‘उनसे बातचीत का रेज बहुत बड़ा हुआ है। शास्त्र परम्परा, नृत्य, संगीत रंगमच, साहित्य, प्रयोग गुरू ‘राजनीति सिनेमा अध्यात्म आदि बहुत सारे विषयों पर सोनल ने इन संवादों में अपने विचार, अनुभव, भावनाएँ, प्रतिक्रियाएँ मत-स्पष्टता और आत्मीयता से व्यक्त किये हैं।
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Vani Prakashan, अन्य कथेतर साहित्य, कहानियां, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण
Dhalaan Se Utarte Hue
कला सिखाती नहीं, ‘जगाती’ है। क्योंकि उसके पास ‘परम सत्य’ की ऐसी कोई कसौटी नहीं, जिसके आधार पर वह गलत और सही, नैतिक और अनैतिक के बीच भेद करने का दावा कर सके. …तब क्या कला नैतिकता से परे है? हाँ, उतना ही परे जितना मुनष्य का जीवन व्यवस्था से परे। यहीं कला की ‘नैतिकता’ शुरू होती है… कोई अनुभव झूठा नहीं, क्योंकि हर अनुभव अद्वितीय है….झूठ तब उत्पन्न होता है, जब हम किसी ‘मर्यादा’ को बचाने के लिए अपने अनुभव को झुठलाने लगते हैं। सीता के अनुभव के सामने राम की मर्यादा कितनी पंगु और प्राणहीन जान पड़ती है… इसलिए नहीं कि उस मर्यादा में कोई खोट या झूठ है, बल्कि इसलिए कि राम अपनी मर्यादा बचाने के लिए अपनी चेतना को झुठलाने लगते हैं… जब हम कोई महान उपन्यास या कविता पढ़ते हैं, किसी संगीत-रचना को सुनते हैं, किसी मूर्ति या पेंटिंग को देखते हैं तो वह उन सब अनुभवों की याद दिलाती है, जो न सिर्फ़ हमें दूसरी कलाकृतियों से प्राप्त हुए हैं, बल्कि जो कला के बाहर हमारे समूचे अनुभव-संसार को झिंझोड़ जाता है…वह एक टूरिस्ट का निष्क्रिय अनुभव नहीं, जिसे वह अपनी नोटबुक में दर्ज करता है…वह हमें विवश करता है कि उस कलाकृति के आलोक में अपने समस्त अनुभव-सत्यों की मर्यादा का पुनर्मूल्यांकन कर सकें… -निर्मल वर्मा निर्मल वर्मा के निबन्धों की सार्थकता इस बात में है कि वे सत्य को पाने की सम्भावनाओं के नष्ट होने के कारणों का विश्लेषण करते हुए उन्हें पुनः मूर्त करने के लिए हमें प्रेरित करते हैं। निर्मल वर्मा लिखते हैं कि समय की उस फुसफुसाहट को हम अक्सर अनसुनी कर देते हैं, जिसमें वह अपनी हिचकिचाहट और संशय को अभिव्यक्त करता है क्योंकि वह फुसफुसाहट इतिहास के जयघोष में डूब जाती है-निर्मल वर्मा के ये निबन्ध इतिहास के जयघोष के बरअक्स समय की इस फुसफुसाहट को सुनने की कोशिश हैं। -नन्दकिशोर आचार्य
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Vani Prakashan, धार्मिक पात्र एवं उपन्यास, महाभारत/कृष्णलीला/श्रीमद्भगवद्गीता
Dharma : Mahasamar – 4
नरेन्द्र कोहली
‘महाभारत’ की कथा पर आधृत उपन्यास ‘महासमर’ का यह चौथा खण्ड है – ‘धर्म’! पाण्डवों को राज्य के रूप में खाण्डवप्रस्थ मिला है, जहाँ न कृषि है, न व्यापार। सम्पूर्ण क्षेत्र में अराजकता फैली हुई है। अपराधियों और महाशक्तियों की वाहिनियाँ अपने षड्यन्त्रों में लगी हुई हैं…और उनका कवच है खाण्डव-वन, जिसकी रक्षा स्वयं इन्द्र कर रहा है। युधिष्ठिर के सम्मुख धर्म-संकट है। वह नृशंस नहीं होना चाहता; किन्तु आनृशंसता से प्रजा की रक्षा नहीं हो सकती। पाण्डवों के पास इतने साधन भी नहीं हैं कि वे इन्द्र-रक्षित खाण्डव-वन को नष्ट कर, उसमें छिपे अपराधियों को दण्डित कर सकें। उधर अर्जुन के सम्मुख अपना धर्म-संकट है। उसे राज-धर्म का पालन करने के लिए अपनी प्रतिज्ञा भंग करनी पड़ती है और बारह वर्षों का ब्रह्मचर्य पूर्ण वनवास स्वीकार करना पड़ता है। किन्तु इन्हीं बारह वर्षों में अर्जुन ने उलूपी, चित्रांगदा और सुभद्रा से विवाह किये। न उसने ब्रह्मचर्य का पालन किया, न वह पूर्णतः वनवासी ही रहा। क्या उसने अपने धर्म का निर्वाह किया? धर्म को कृष्ण से अधिक और कौन जानता है? …अर्जुन और कृष्ण ने अग्नि के साथ मिलकर, खाण्डव-वन को नष्ट कर डाला। क्या यह धर्म था? इस हिंसा की अनुमति युधिष्ठिर ने कैसे दे दी? और फिर राजसूय यज्ञ! क्या आवश्यकता थी, उस राजसूय यज्ञ की? जरासन्ध जैसा पराक्रमी राजा भीम के हाथों कैसे मारा गया; और उसका पुत्र क्यों खड़ा देखता रहा? अन्त में हस्तिनापुर में होने वाली द्यूत-सभा। धर्मराज होकर युधिष्ठिर ने द्यूत क्यों खेला? अपने भाइयों और पत्नी को द्यूत में हारकर किस धर्म का निर्वाह कर रहा था धर्मराज? द्रौपदी की रक्षा किसने की? कृष्ण उस सभा में किस रूप में उपस्थित थे? – ऐसे ही अनेक प्रश्नों के मध्य से होकर गुजरती है ‘धर्म’ की कथा। यह उपन्यास न केवल इन समस्याओं की गुत्थियाँ सुलझाता है बल्कि उस युग का, उस युग के चरित्रों का तथा उनके धर्म का विश्लेषण भी करता है। हम आश्वस्त हैं कि इस उपन्यास को पढ़कर ‘महाभारत’ ही नहीं, धर्म के प्रति भी आपका दृष्टिकोण कुछ अधिक विशद होकर रहेगा।…और फिर भी एक यह समकालीन मौलिक उपन्यास है, जिसमें आपके समसामयिक समाज की धड़कनें पूरी तरह से विद्यमान हैं।
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Vani Prakashan, अन्य कथेतर साहित्य, कहानियां, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण
Dhundh Se Uthati Dhun
‘धुन्ध से उठती धुन’ एक ऐसे ही ‘समग्र, समरसी गद्य’ का जीवन्त दस्तावेज़ है, निर्मल वर्मा के ‘मन की अन्तःप्रक्रियाओं’ का चलता-फिरता रिपोर्ताज, जिसमें पिछले वर्षों के दौरान लिखी डायरियों के अंश, यात्रा-वृत्त, पढ़ी हुई पुस्तकों की स्मृतियाँ और स्मृति की खिड़की से देखी दुनिया एक साथ पुनर्जीवित हो उठते हैं। एक तरफ़ जहाँ यह पुस्तक उस ‘धुन्ध’ को भेदने का प्रयास है, जो निर्मल वर्मा की कहानियों के बाहर छाई रहती है, वहीं दूसरी तरफ़ यह उस ‘धुन’ को पकड़ने की कोशिश है, जो उनके गद्य के भीतर एक अन्तर्निहित लय की तरह प्रवाहित होती है।/
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Literature & Fiction, Vani Prakashan, उपन्यास
Do Aurton Ke Patra (Paper Back)
“प्रस्तुत कृति में पुरुष शासित समाज में स्त्रियों की दुर्दशा का हू-ब-हू चित्रण है। स्त्री-भोग्या मात्र है और धर्मशास्त्रों में भी उसके पाँवों में बेड़ियाँ डाल रखी हैं। ईश्वर की कल्पना तक में परोक्षतः नारी-पीड़ा का समर्थन किया गया है। सामाजिकत रूढ़ियों के पालन में, और दाम्पात्य जावन के प्रत्येक क्षेत्र में-यानी स्त्रियों के किसी भी मामले में पुरुषों की लालसा, नीचता, आक्रमकता, और निरंकुश भाव को तसलीमा ने खुले आम चुनौती दी है। अपनी दुस्साहसपूर्ण भाषा-शाली और दो टूक अंदाज में अपने विचारों को इस तरह रखा है कि पाठक एक बारगी तो तिलमिला उठता है। पुरुष शासित समाज में स्त्रियों के अधिकार और नारी–मुक्ति को लेकर चाहे जितने बड़े-बड़े दावे पेश किये जाएँ, बांग्लादेश की लेखिका तसलीमा नसरीन का स्वर निस्सन्देह सबसे भास्वर है। उनके लेखन का तेवर सर्वाधिक व्यंग्य मुखर और तिलमिला दोनो वाला है। संस्कार मुक्ति प्रतिवादी और बेबाक तसलीमा ने अपने ‘निर्वाचित कलम’ द्वारा बांग्लादेश में एक जबरदस्त हलचल-सी मचा दी और जैसा कि तय था, विवाद के केन्द्र में आ गयी। इस अप्रतिम रचना को आनन्द पुरस्कार से सम्मानित किये जाने की खबर से सारे देश में एक कृति के प्रति स्वभावतः कौतुहल पैदा हो गया। उक्त रचना के साथ उनके द्वारा इसी विषय पर लिखित उनके अन्य लेखों को भी पस्तुत संस्करण में सम्मिलित कर लिया गया है। इस कृति में तसलीमा ने बचपन से लेकर अब तक की निर्मम, नग्न और निष्ठुर घटनाओं और अनुभवों के आलोक में नये सवाल उठाए गये हैं, जिनसे स्त्रियों के समान अधिकारों को एक सार्थक एवं निर्णायक प्रस्थान प्राप्त हुआ है। “
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