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Nyaya mein Aprama-vichar ke Vividh Prasthan


कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में न्यायदर्शन को सभी विद्याओं का प्रदीपए सभी कर्मों का उपाय और धर्मों का आश्रय कहा है। इस दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि न्यायशास्त्र एक समग्र दार्शनिक तन्त्र के रूप में भारतीय व्रिचार-पद्धति को एक साँचा प्रदान करता है। महर्षि गौतम के न्यायसूत्र से लेकर अद्यपर्यन्त भाष्यए अणुभाष्यए वारत्तिकए टीकाए परिशुद्धिए वृत्ति और प्रकरण ग्रन्थों के माध्यम से न्यायशास्त्र न केवल अपनी वैचारिक गतिशीलता को अक्षुण्ण रखा हैए बल्कि विकास के स्वकीय प्रारूप को पल्‍लवित और पुष्पित करता रहा है। इस पुस्तक में न्यायशास्त्र के अन्तर्गत की वैचारिक गतिशीलता एवं विकास के स्वकीय प्रारूप को अप्रमा-विचार के विविध प्रस्थानों के विशेष संदर्भ में पहचानने और उद्घाटित करने का प्रयास किया गया है। यह पुस्तक न्यायशास्त्र के 2000 से अधिक वर्षो के वैचारिक विकास को सम्पूर्णता में उसके विभिन्‍न निष्पत्तियों के साथ पुंखानुपुंख रुप में प्रस्तुत करता है। इस दृष्टि से यह अद्वितीय है और निश्यच ही संग्रहणीय कृति है।

Rs.1,350.00 Rs.1,500.00

Author: Arun Mishra
ISBN:9788188643899
Language: Hindi
Binding: (PB)

Weight 1.500 kg
Dimensions 8.7 × 5.57 × 1.57 in

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