Author – Dr. P. Jayaraman
ISBN – 9789350725801
Lang. – Hindi
Pages – 340
Binding – Hardcover
Weight | .850 kg |
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Dimensions | 9.75 × 6.50 × 1.57 in |
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Vani Prakashan, उपन्यास
Sharmishtha
0 out of 5(0)अणुशक्ति की प्रखर लेखनी से हम सब उनकी कुछ प्रकाशित कहानियों और कविताओं के चलते परिचित हैं। पहली पुस्तक कृति के रूप में किसी युवा लेखक का सीधा उपन्यास प्रकाश में आये तो यह साहस और प्रशंसा का विषय है क्योंकि उपन्यास विधा ऐसी विधा है जिसे साधना या तो अभ्यास के साथ आता है, या यह विधा साधने की प्रतिभा आप में प्रकृति प्रदत्त होती है। अणुशक्ति ने दूसरा साहस किया है पौराणिक-मिथकीय पात्र चुनकर। वह भी ऐसा पात्र जिसके आस-पास प्रकाशित पात्र पहले से हैं जिन पर कथा, कविताएँ रचे जा चुके हैं। ‘शर्मिष्ठा’ इन चमकते सौर मण्डल के सदस्यों ययाति, पुरुरवा, देवयानी और शुक्राचार्य के बीच एक संकोची चन्द्र रही है। इसे अपने जीवनीपरक उपन्यास के माध्यम से प्रकाश में लाने का सार्थक प्रयास किया है अणुशक्ति ने। शुक्राचार्य की पुत्री, घमण्डी, महत्वाकांक्षी और ईर्ष्यालु देवयानी के समक्ष असुरराज वृषपर्वा की पुत्री राजकुमारी शर्मिष्ठा सर्वगुण सम्पन्न होते हुए भी अपने निश्छल व्यक्तित्व के चलते राजकीय जीवन और स्वतन्त्रता हार जाती है और देवयानी की दासी बनकर रहती है। फिर चाहे ययाति से उसे प्रेम और पुत्र प्राप्ति हो । हस्तिनापुर तो वही है न, जहाँ से कोई स्त्री आहत मर्म लिए नहीं लौटती। शर्मिष्ठा के जीवन-संघर्ष को बड़े सुन्दर ढंग से पिरोया गया है इस उपन्यास में। भाषा इतनी सारगर्भित है कि कितना बड़ा कालखण्ड, परिवेशों, कितने-कितने चरित्रों और घटनाओं को सहज ही इस उपन्यास के कलेवर में समेट लेती है। अणुशक्ति ने पौराणिक अतीत से एक पात्र शर्मिष्ठा को चुनकर एक रोचक और पठनीय उपन्यास रचा है.जिसका कथ्य गहरे कहीं समकालीन प्रवृत्तियों पर भी खरा उतरता है।
अणुशक्ति की प्रखर लेखनी से हम सब उनकी कुछ प्रकाशित कहानियों और कविताओं के चलते परिचित हैं। पहली पुस्तक कृति के रूप में किसी युवा लेखक का सीधा उपन्यास प्रकाश में आये तो यह साहस और प्रशंसा का विषय है क्योंकि उपन्यास विधा ऐसी विधा है जिसे साधना या तो अभ्यास के साथ आता है, या यह विधा साधने की प्रतिभा आप में प्रकृति प्रदत्त होती है। अणुशक्ति ने दूसरा साहस किया है पौराणिक-मिथकीय पात्र चुनकर। वह भी ऐसा पात्र जिसके आस-पास प्रकाशित पात्र पहले से हैं जिन पर कथा, कविताएँ रचे जा चुके हैं।
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Vani Prakashan, इतिहास, ऐतिहासिक उपन्यास
Rang Parampara
0 out of 5(0)अत्यन्त समृद्ध नाट्य-परंपरा और सक्रिय आधुनिक नाट्य स्थिति के बावजूद न सिर्फ़ हिन्दी बल्कि भारत की किसी भी भाषा में समकक्ष रंगालोचना विकसित नहीं हो पायी है। नये रंगविचार की रोशनी में अपनी रंग परम्परा को खोजने और उसके पुनराविष्कार के अनेक प्रयत्न रंगमंच पर हुए हैं और उन्हें अपनी परम्परा में अवस्थित कर आलोचनात्मक दृष्टि से समझने की कोशिश कम ही हो पायी है। वरिष्ठ साहित्यकार नेमिचन्द्र जैन पिछली लगभग अर्द्धशती से हिन्दी और समूचे भारतीय रंगमंच के सजग और प्रबुद्ध दर्शक और समीक्षक रहे हैं। हिन्दी में तो उन्हें रंग समीक्षा का स्थपति ही माना जाता है। उनमें परम्परा, उसके पुनराविष्कार और उसके रंगविस्तार की गहरी समझ और उसकी बुनियादी उलझनों की सच्ची पकड़ है। उन्होंने आलोचना की एक रंगभाषा खोजी और स्थापित की है। उसी रंगभाषा और उसमें समाहित एक गतिशील और आधुनिक रंगदृष्टि से उन्होंने हमारी रंग परम्परा का गहन विश्लेषण किया है। दृष्टि का ऐसा खुलापन, समझ का ऐसा चौकन्ना सयानापन और समग्रता का ऐसा आग्रह हिन्दी में ही नहीं अन्य भारतीय भाषाओं में दुर्लभ है। अगर पिछले पचास वर्ष के भारतीय रंगमंच को, उसकी बेचैनी और जिजीविषा को, उसकी सीमाओं और सम्भावनाओं को, उसकी शक्ति और विफलता को समझना हो तो यह पुस्तक एक अनिवार्य सन्दर्भ है। सबके लिए, फिर वह दर्शक हो, या रंगकर्मी, नाटककार या समीक्षक।
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