आदमी को क्या हो गया है? आदमी के इस बगीचे में फूल खिलने बंद हो गए! मधुमास जैसे अब आता नहीं । जैसे मनुष्य का हृदय एक रेगिस्तान हो गया है; मरूद्यान भी नही कोई । हरे वृक्षों की छाया भी न रही । दूर के पंछी बसेरा करें, ऐसे वृक्ष भी न रहे । आकाश को देखने वाली आंखे भी नहीं । अनाहत को सुनने वाले कान भी नही । मनुष्य को क्या हो गया है?
मनुष्य ने गरिमा कहां खो दी है? यह मनुष्य का ओज कहां गया? इसके मूल कारण की खोज करनी ही होगी । और मूल कारण कठिन नहीं है समझ लेना । जरा अपने ही भीतर खोदने की बात है और जड़ें मिल जाएंगी समस्या की । एक ही जड़ है कि हम अपने से वियुक्त हो गए हैं; अपने से ही टूट गए हैं अपने से ही अजनबी हो गए हैं!
और जो अपने से अजनबी है, वह सबसे अजनबी हो जाता है । अपने को जिसने पहचान लिया, उसकी सबसे पहचान हो जाती है । उसके लिए अजनबी भी अजनबी नहीं रह जाते, क्योंकि उसे दिखाई पड़ता है: भीतर एक ही तरंग, एक ही चैतन्य, एक ही ज्योति । दीये होंगे अलग दीयों के ढंग होंगे अलग, आकृति-रंग होंगे अलग; मगर ज्योति तो एक है! लेकिन जिसनें अपनी ही ज्योति नहीं देखी, वह किसके भीतर ज्योति को देखेगा! उसे तो चलती-फिरती लाशें दिखाई पड़ती हैं । वह खुद भी मुर्दा है और दूसरे भी उसे मुर्दा ही मालूम होते है । वह मुर्दों की बस्ती में जीता है ।
एक दुर्घटना घटी है और उस दुर्घटना के प्रति सचेत हो जाना जरूरी है, अन्यथा अपनी खोज न हो सकेगी । और जिसने स्वयं को न जाना उसने कुछ भी न जाना । वह जीया भी और जीया भी नहीं । वह जीया नही, बस मरा ही । उसके जन्म और मृत्यु के बीच में कुछ भी न घटा। अगर जन्म और मृत्यु के बीच में परमात्मा न घटे तो जानना कि कुछ भी न घटा; खाली आए, खाली गए । शायद कुछ गंवा कर गए, कमा कर नहीं ।
एक दुर्घटना हुई है और वह दुर्घटना है: मनुष्य की चेतना बहिर्मुखी हो गई है । सदियों में धीरे-धीरे यह हुआ, शनैः-शनै:, क्रमशः-क्रमश: । मनुष्य की आंखें बस बाहर थिर हो गई हैं, भीतर मुड़ना भूल गई हैं । तो कभी अगर धन से ऊब भी जाता है- और ऊबेगा ही कभी, कभी पद से भी आदमी ऊब जाता है-ऊबना ही पड़ेगा, सब थोथा है! कब तक भरमाओगे अपने को? भ्रम हैं तो टूटेंगे । छाया को कब तक सत्य मानोगे? माया का मोह कब तक धोखा देगा? सपनो मे कब तक अटके रहोगे? एक न एक दिन पता चलता है सब व्यर्थ है ।
लेकिन तब भी एक मुसीबत खड़ी हो जाती है । वे जो आंखें बाहर ठहर गई हैं, वे आंखें अब भी बाहर खोजती है । धन नहीं खोजती, भगवान खोजती है-मगर बाहर ही । पद नहीं खोजती, मोक्ष खोजती है-लेकिन बाहर ही । विषय बदल जाता है, लेकिन तुम्हारी जीवन-दिशा नहीं बदलती ।
और परमात्मा भीतर है, वह अंतर्यात्रा है । जिसकी भक्ति उसे बाहर के भगवान से जोडे हुए है, उसकी भक्ति भी धोखा है ।
मन ही पूजा मन ही धूप ।
चलना है भीतर! मन है मंदिर! उसी मन के अंतरगृह मे छिपा हुआ बैठा है मालिक ।
आदमी ने अपनी तरफ पीठ कर ली, यही उसका दुर्भाग्य है । रैदास याद दिलाते है : मुड़ो, अपनी ओर मुड़ो । मन ही पूजा मन ही धूप! छोडो मंदिर, मस्जिद, गिरजे, गुरुद्वारे । वे सब तो आदमी के बनाए हुए हैं । खोजो अपने भीतर के चैतन्य में, क्योंकि वही परमात्मा से आया है । वही एक किरण है प्रकाश की, जो उस परम सूर्य तक ले जा सकती है, क्योंकि वह उस परम सूर्य से आती है । वही है सेतु।
अनुक्रम
1 आग के फूल 1
2 जीवन का रहस्य 27
3 क्या तू सोया जाग अयाना 53
4 मन माया है 81
5 गाइ गाइ अब का कहि गाऊं 109
6 आस्तिकता के स्वर 135
7 भगती ऐसी सुनहु रे भाई 159
8 सत्संग की महिमा 187
9 संगति के परताप महातम 211
10 आओ और डूबो 239
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