Author – Jaidev
ISBN – 9789390101429
Language – Hindi
Pages – 160
Author – Jaidev
ISBN – 9789390101429
Language – Hindi
Pages – 160
Weight | .172 kg |
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कर्म शब्द ‘कृ’ धातु से निकला है; ‘कृ’ धातु का अर्थ है—करना। जो कुछ किया जाता है, वही कर्म है। इस शब्द का पारिभाषिक अर्थ ‘कर्मफल’ भी होता है। दार्शनिक दृष्टि से यदि देखा जाए, तो इसका अर्थ कभी-कभी वे फल होते हैं, जिनका कारण हमारे पूर्व कर्म रहते हैं। परंतु कर्मयोग में कर्म शब्द से हमारा मतलब केवल कार्य ही है। मानवजाति का चरम लक्ष्य ज्ञानलाभ है। प्राच्य दर्शनशास्त्र हमारे सम्मुख एकमात्र यही लक्ष्य रखता है। मनुष्य का अंतिम ध्येय सुख नहीं वरन् ज्ञान है; क्योंकि सुख और आनंद का तो एक न एक दिन अंत हो ही जाता है। अतः यह मान लेना कि सुख ही चरम लक्ष्य है, मनुष्य की भारी भूल है। संसार में सब दुःखों का मूल यही है कि मनुष्य अज्ञानवश यह समझ बैठता है कि सुख ही उसका चरम लक्ष्य है। पर कुछ समय के बाद मनुष्य को यह बोध होता है कि जिसकी ओर वह जा रहा है, वह सुख नहीं वरन् ज्ञान है, तथा सुख और दुःख दोनों ही महान् शिक्षक हैं, और जितनी शिक्षा उसे सुख से मिलती है, उतनी ही दुःख से भी। सुख और दुःख ज्यों-ज्यों आत्मा पर से होकर जाते रहते हैं, त्यों-त्यों वे उसके ऊपर अनेक प्रकार के चित्र अंकित करते जाते हैं।
निष्कपट भाव से ईश्वर की खोज को ‘भक्तियोग’ कहते हैं। इस खोज का आरंभ, मध्य और अंत प्रेम में होता है। ईश्वर के प्रति एक क्षण की भी प्रेमोन्मत्तता हमारे लिए शाश्वत मुक्ति को देनेवाली होती है। ‘भक्तिसूत्र’ में नारदजी कहते हैं, ‘‘भगवान्् के प्रति उत्कट प्रेम ही भक्ति है। जब मनुष्य इसे प्राप्त कर लेता है, तो सभी उसके प्रेमपात्र बन जाते हैं। वह किसी से घृणा नहीं करता; वह सदा के लिए संतुष्ट हो जाता है। इस प्रेम से किसी काम्य वस्तु की प्राप्ति नहीं हो सकती, क्योंकि जब तक सांसारिक वासनाएँ घर किए रहती हैं, तब तक इस प्रेम का उदय ही नहीं होता। भक्ति कर्म से श्रेष्ठ है और ज्ञान तथा योग से भी उच्च है, क्योंकि इन सबका एक न एक लक्ष्य है ही, पर भक्ति स्वयं ही साध्य और साधन-स्वरूप है।’’
प्रस्तुत पुस्तक अत्यन्त रहस्यमय योगिसिद्ध विभूति श्री शंकर स्वामी जी की अनुभूति का उनके ही शब्दों में अवतरित वाङ्मय स्वरूप है। वे इस जागतिक आयाम के निवासियों को इस ग्रंथ के माध्यम से उस इन्द्रियातीत जगत् की ओर उन्मुख होने का एक संदेश दे रहे हैं। इस ग्रन्थ में जो कुछ अंकित है, वह उनके प्रत्यक्ष (मंदार महल में लेखक श्रीमत् स्वामीजी के कायाशोधन संस्कार, नागार्जुन कृत आत्मिक गवेषणागार, प्राय: दो हजार वर्ष प्राचीन सिद्धाश्रम के पारिजात महल में युत्सुंग लामाजी का काया परित्याग एवं श्रीमत् स्वामीजी की आत्मा के त़ड़ित वेग से भूलोक की परिधि दिक्मंडल को पार कर नक्षत्रलोक की ओर धावमान के वृत्तांत आदि ) पर आधारित है। इसमें किञ्चित भी कल्पना का लेश नहीं है। आशा है कि वे इसी तरह अपने अलौकिक अनुभवों को ग्रंथरूप में सँजोकर भारत तथा विश्व के जिज्ञासुओं एवं सत्यान्वेषी लोगों को अनुप्राणित करते रहेंगे।
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