Publisher – Gita Press
Language – Hindi
Binding – Hardcover
Weight | .600 kg |
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Dimensions | 7.50 × 5.57 × 1.57 in |
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अपने समय के चार दिग्गजों के परस्पर संबंधों और विचारों की झलक देती महत्त्वपूर्ण पुस्तक।SKU: n/a -
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0 out of 5(0)अनंत विजय की पुस्तक का शीर्षक ‘मार्क्सवाद का अर्धसत्य’ एक बार पाठक को चौंकाएगा। क्षणभर के लिए उसे ठिठक कर यह सोचने पर विवश करेगा कि कहीं यह पुस्तक मार्क्सवादी आलोचना अथवा मार्क्सवादी सिद्धान्तों की कोई विवेचना या उसकी कोई पुनव्र्याख्या स्थापित करने का प्रयास तो नहीं है। मगर पुस्तक में जैसे-जैसे पाठक प्रवेश करता जायेगा उसका भ्रम दूर होता चला जायेगा। अन्त तक आते-आते यह भ्रम उस विश्वास में तब्दील हो जायेगा कि मार्क्सवाद की आड़ में इन दिनों कैसे आपसी हित व स्वार्थ के टकराहटों के चलते व्यक्ति विचारों से ऊपर हो जाता है। कैसे व्यक्तिवादी अन्तर्द्वन्द्वों और दुचित्तेपन के कारण एक मार्क्सवादी का आचरण बदल जाता है। पिछले लगभग एक दशक में मार्क्सवाद से। हिन्दी पट्टी का मोहभंग हुआ है और निजी टकराहटों के चलते मार्क्सवादी बेनकाब हुए हैं, अनंत विजय ने सूक्ष्मता से उन कारकों का विश्लेषण किया है, जिसने मार्क्सवादियों को ऐसे चौराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है, जहाँ यह तय कर पाना मुश्किल हो गया है कि विचारधारा बड़ी है या व्यक्ति। व्यक्तिवाद के बहाने अनंत विजय ने मार्क्सवाद के ऊपर जम गयी उस गर्द को हटाने और उसे समझने का प्रयास किया है। ‘मार्क्सवाद का अर्धसत्य’ दरअसल व्यक्तिवादी कुण्ठा और वैचारिक दम्भ को सामने लाता है, जो प्रतिबद्धता की आड़ में सामन्ती, जातिवादी और बुर्जुआ मानसिकता को मज़बूत करता है। आज मार्क्सवाद को उसके अनुयायियों ने जिस तरह से वैचारिक लबादे में छटपटाने को मजबूर कर दिया है, यह पुस्तक उसी निर्मम सत्य को सामने लाती है।
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तसलीमा नसरीन बांग्लादेश की लेखिका हैं। उनकी आत्मकथा का 6वां खंड ‘नहीं,कहीं कुछ भी नहीं..’ के रोप में पाठकों के सामने है जिसे उन्होने अपनी माँ को समर्पित किया है। जिसमे उनके जीवन के वो पल मौजूद है जो उनकी माँ को केंद्र में रख कर लिखे हैं।
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