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Vani Prakashan, धार्मिक पात्र एवं उपन्यास, महाभारत/कृष्णलीला/श्रीमद्भगवद्गीता
Ashwatthama
अर्जुन को शस्त्रविद्या देते समय पिताश्री बहुधा गहन विचारों में डूब जाया करते। उनके मुख पर अनेक प्रकार के भाव आते-जाते रहते। आँखों में अनेक बार क्रोध झलक उठता। शब्द-भेदी बाण व अन्धकार में बाण चलाने की विद्या अर्जुन ने पिताश्री से ही प्राप्त की थी। सत्य कहता हूँ दिशाओ अर्जुन को लेकर सबके साथ पिताश्री का पक्षपाती व्यवहार मैं समझ नहीं सका। कठिन तप द्वारा ऋषि अगस्त्य से ब्रह्मास्त्र प्राप्त करने वाले द्रोणाचार्य, विद्या जिज्ञासु कर्ण को सूत पुत्र कहकर नकारने वाले भारद्वाज पुत्र द्रोण, अन्य शिष्यों से चुपचाप मुझे गूढ़तर विद्याओं का अभ्यास करवाते पिताश्री, निषादराज के पुत्र एकलव्य से गुरुदक्षिणा में अँगूठा माँग लेने वाले गुरु द्रोण, इन समस्त रूपों में कौन-सा सत्य रूप था गुरु द्रोण का, मैं कभी भी समझ नहीं सका। परन्तु राजकुमारों से गुरुदक्षिणा में द्रुपदराज को युद्ध में पराजित करने का वचन लेने वाले गुरु द्रोण को मैं आज समझ सकता हूँ। आज मुझे पिताश्री का अर्जुन से अधिक स्नेह का कारण समझ आ रहा है।
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Vani Prakashan, धार्मिक पात्र एवं उपन्यास, महाभारत/कृष्णलीला/श्रीमद्भगवद्गीता
Ashwatthama (PB)
अर्जुन को शस्त्रविद्या देते समय पिताश्री बहुधा गहन विचारों में डूब जाया करते। उनके मुख पर अनेक प्रकार के भाव आते-जाते रहते। आँखों में अनेक बार क्रोध झलक उठता। शब्द-भेदी बाण व अन्धकार में बाण चलाने की विद्या अर्जुन ने पिताश्री से ही प्राप्त की थी। सत्य कहता हूँ दिशाओ अर्जुन को लेकर सबके साथ पिताश्री का पक्षपाती व्यवहार मैं समझ नहीं सका। कठिन तप द्वारा ऋषि अगस्त्य से ब्रह्मास्त्र प्राप्त करने वाले द्रोणाचार्य, विद्या जिज्ञासु कर्ण को सूत पुत्र कहकर नकारने वाले भारद्वाज पुत्र द्रोण, अन्य शिष्यों से चुपचाप मुझे गूढ़तर विद्याओं का अभ्यास करवाते पिताश्री, निषादराज के पुत्र एकलव्य से गुरुदक्षिणा में अँगूठा माँग लेने वाले गुरु द्रोण, इन समस्त रूपों में कौन-सा सत्य रूप था गुरु द्रोण का, मैं कभी भी समझ नहीं सका। परन्तु राजकुमारों से गुरुदक्षिणा में द्रुपदराज को युद्ध में पराजित करने का वचन लेने वाले गुरु द्रोण को मैं आज समझ सकता हूँ। आज मुझे पिताश्री का अर्जुन से अधिक स्नेह का कारण समझ आ रहा है।
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Rajpal and Sons, इतिहास, ऐतिहासिक उपन्यास, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण
Draupadi
द्रौपदी महाभारत ही नहीं, भारतीय जीवन तथा संस्कृति का एक अत्यन्त विलक्षण और महत्त्वपूर्ण चरित्र है-परन्तु साहित्य ने अब तक उसे प्रायः छुआ नहीं था। उपन्यास के रूप में इस रचना का एक विशिष्ट पक्ष यह भी है कि इसे एक महिला ने उठाया और वाणी दी है, जिस कारण वे इसके साथ न्याय करने में पूर्ण सफल हुई हैं। डा. प्रतिभा राय उड़िया की अग्रणी लेखिका हैं जिनके अनेक उपन्यास प्रकाशित होकर लोकप्रिय हो चुके हैं। उन पर अनेक पुरस्कार मिले हैं, फिल्में बनी हैं तथा कई कृतियां हिन्दी में भी सामने आ चुकी हैं। कृष्ण समर्पित तथा पांच पांडवों की ब्याही द्रौपदी का जीवन अनेक दिशाओं में विभक्त है, फिर भी उसका व्यक्तित्व बँटता नहीं, टूटता नहीं, वह एक ऐसी इकाई के रूप में निरन्तर जीती है जो तत्कालीन घटनाचक्र को अनेक विशिष्ट आयाम देने में समर्थ है। नारी-मन की वास्तविक पीड़ा, सुख-दुःख और व्यक्तिगत अन्तर्संबंधों की जटिलता को गहराई से पकड़ पाना, इस उपन्यास की विशेषता है।
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Prabhat Prakashan, इतिहास, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण, धार्मिक पात्र एवं उपन्यास
Draupadi Ki Aatmakatha
द्रौपदी का चरित्र अनोखा है। पूरी दुनिया के इतिहास में उस जैसी दूसरी कोई स्त्रा् नहीं हुई। महाभारत में द्रौपदी के साथ जितना अन्याय होता दिखता है, उतना अन्याय इस महाकथा में किसी अन्य स्त्रा् के साथ नहीं हुआ। द्रौपदी संपूर्ण नारी थी। वह कार्यकुशल थी और लोकव्यवहार के साथ घर-गृहस्थी में भी पारंगत। लेकिन द्रौपदी जैसी असाधारण नारी के बीच भी एक साधारण नारी छिपी थी, जिसमें प्रेम, ईर्ष्या, डाह जैसी समस्त नारी-सुलभ दुर्बलताएँ मौजूद थीं। द्रौपदी का अनंत संताप उसकी ताकत थी। संघर्षों में वह हमेशा अकेली रही। पाँच पतियों की पत्नी होकर भी अकेली। प्रतापी राजा द्रुपद की बेटी, धृष्टद्युम्न की बहन, फिर भी अकेली। पर द्रौपदी के तर्क, बुद्धिमत्ता, ज्ञान और पांडित्य के आगे महाभारत के सभी पात्र लाचार नजर आते हैं। जब भी वह सवाल करती है, पूरी सभा निरुत्तर होती है।
महाभारत आज भी उतना ही प्रासंगिक और उपयोगी है, वही समस्याएँ और चुनौतियाँ हमारे सामने हैं। राजसत्ता के भीतर होनेवाला षड्यंत्र हों या राजसत्ता का बेकाबू मद या फिर बिक चुकी शिक्षा व्यवस्था हो या फिर छल-कपट से मारे जाते अभिमन्यु। आज भी द्रौपदियों का अपमान हो रहा है। कर्ण नदी-नाले में रोज बह रहे हैं।
‘कृष्ण की आत्मकथा’ जैसी महती कृति के यशस्वी लेखक श्री मनु शर्मा ने महाभारत के पात्रों और घटनाओं की आज के संदर्भ में नई व्याख्या कर उपेक्षित द्रौपदी की पीड़ा और अडिगता को जीवंतता प्रदान की है। नारी की अस्मिता को सम्मान देनेवाली अत्यंत पठनीय कृति।SKU: n/a -
Prabhat Prakashan, इतिहास, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण, धार्मिक पात्र एवं उपन्यास
Karna Ki Atmakatha
‘यही तो विडंबना है कि तू सूर्यपुत्र होकर भी स्वयं को सूतपुत्र समझता है, राधेय समझता है; किंतु तू है वास्तव में कौंतेय। तेरी मां कुंती है।” इतना कहकर वह रहस्यमय हंसी हंसने लगा। थोड़ी देर बाद उसने कुछ संकेतों और कुछ शब्दों के माध्यम से मेरे जन्म की कथा बताई।
”मुझे विस्वास नहीं होता, माधव!” मैंने कहा। ”मैं समझ रहा था कि तुम विस्वास नहीं कसेगे। किंतु यह भलीभाति जानी कि कृष्ण राजनीतिक हो सकता है, पर अविश्वस्त नहीं। ”उसने अपनी मायत्वी हँसी में घोलकर एक रहस्यमय पहेली मुझे पिलानी चाही, चो सरलता से मेरे गले के नीचे उतर नहीं रही थी। वह अपने प्रभावी स्वर में बोलता गया, ”तुम कुंतीपुत्र हो। यह उतना ही सत्य है जितना यह कहना कि इस समय दिन है, जितना यह कहना कि मनुष्य मरणधर्मा है, जितना यह कहना कि विजय अन्याय की नहीं बल्कि न्याय की होती है।”
”तो क्या मैं क्षत्रिय हूँ?” एक संशय मेरे मन में अँगड़ाई लेने लगा, ‘आचार्य परशुराम ने भी तो कहा था कि भगवान् भूल नहीं कर सकता। तू कहीं-न- कहीं मूल में क्षत्रिय है। जब लोगों ने सूतपुत्र कहकर मेरा अपमान क्यों किया?’ मेरा मनस्ताप मुखरित हुआ, ”जब मैं कुंतीपुत्र था तो संसार ने मुझे सूतपुत्र कहकर मेरी भर्त्सना क्यों की?”
”यह तुम संसार से पूछो। ”हँसते हुए कृष्ण ने उत्तर दिया।
”और जब संसार मेरी भर्त्सना कर रहा था तब कुंती ने उसका विरोध क्यों नहीं किया?”SKU: n/a -
Rajpal and Sons, उपन्यास, ऐतिहासिक उपन्यास, धार्मिक पात्र एवं उपन्यास
Main Bheeshm Bol Raha Hoon
महाभारत में सबसे विशिष्ट चरित्र भीष्म पितामह का है। अपने पिता की इच्छा पूरी करने के लिए उन्होंने आजन्म ब्रह्मचारी रहने की भीष्म प्रतिज्ञा की और साथ ही राजसिंहासन पर अपने अधिकार को भी तिलांजलि दी। दुर्योधन के विचारों, नीतियों और दुष्कर्मों के घोर विरुद्ध रहते हुए भी कौरवों के पक्ष की सेवा करने की विवशता को स्वीकार किया। राजदरबार में द्रौपदी चीरहरण के समय क्रोध और लज्जा से दाँत पीसकर रह गए। परंतु खुलकर विरोध करने में विवश रहे। महाभारत युद्ध में भी कौरव सेना का सेनापतित्व करना पड़ा। जबकि मन से पाण्डवों के पक्षधर थे। उनका हृदय पाण्डवों के साथ था, शरीर कौरवों की सेवा में। अनेक अन्तर्विरोधों से भरे भीष्म पितामह के चरित्र को बहुत ही पैनी दृष्टि से परखते हुए रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है इसके लेखक भगवतीशरण मिश्र ने।
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Vani Prakashan, धार्मिक पात्र एवं उपन्यास, महाभारत/कृष्णलीला/श्रीमद्भगवद्गीता
Shakuni
महाभारत एक ऐसी महागाथा है, जो कई मायनों में अद्भुत है। इसका हरेक पात्र अपने आप में बेहद अहम है और उसका अपना दृष्टिकोण है। यही वजह है कि महाभारत की मूल कथा को आधार बनाकर कथाकारों ने श्रीकृष्ण से लेकर भीष्म, कुन्ती, अर्जुन, भीम, युधिष्ठिर, कर्ण, द्रौपदी, गान्धारी, दुर्योधन, द्रोण, अश्वत्थामा आदि के चरित्र पर आधारित कथा व उपन्यास लिखे हैं। लेकिन इस महागाथा के एक बेहद अहम पात्र ‘शकुनि’ की न केवल अनदेखी की गयी है वरन् उसका चित्रण केवल और केवल खलनायक के रूप में ही किया गया है। हर खलनायक में एक नायक छुपा होता है, उसी प्रकार शकुनि के चरित्र का भी यदि सूक्ष्म अवलोकन किया जाये तो कई ऐसी बातें उभरकर आती हैं जो न केवल उसके चरित्र की नकारात्मकता को कम करती हैं, बल्कि कई बार तो उससे सहानुभूति भी होने लगती है। ये उपन्यास शकुनि को नायक के रूप में प्रस्तुत नहीं करता वरन् महाभारत की अहम घटनाओं को एक दूसरे दृष्टिकोण से देखने का एक प्रयास है।
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Vani Prakashan, धार्मिक पात्र एवं उपन्यास
Shikhandi
पितामह ने बड़े उत्साह से कहा, “तुम लोग जानते ही हो कि तुम्हारी सेना में मेरे वध के लिए कौन सबसे अधिक उत्कण्ठित है।” “शिखण्डी।” सारे पाण्डव सहमत थे। पितामह हँस पड़े, “अम्बा ने ही पुनर्जन्म लिया है। वह अन्तिम बार विदा होते हुए कह गयी थी कि वह उस जन्म में मेरी हत्या न कर पायी तो दूसरा जन्म लेगी। लगता है शिखण्डी के रूप में आयी है, नहीं तो मुझसे क्या इतनी शत्रुता है शिखण्डी की। पता नहीं यह उनकी शत्रुता है या प्यार है। प्रेम नहीं मिला तो शत्रुता पाल ली। कौन जाने लोहा-चुम्बक एक-दूसरे के शत्रु होते हैं या मित्र। किन्तु वे एक-दूसरे की ओर आकृष्ट अवश्य होते हैं। शिखण्डी मेरी ओर खिंच रहा है।… शिखण्डी या शिखण्डिनी।…” पितामह हँसे, “शिखण्डी को अनेक लोग आरम्भ में स्त्री ही मानते रहे हैं। मैं आज भी उसे स्त्री रूप ही मानता हूँ। लगता है कि कुछ देय है मेरी ओर। अम्बा को उसका देय नहीं दे पाया। शिखण्डिनी को दूँगा। उसकी कामना पूरी करूँगा। उसे कामनापूर्ति का वर देता हूँ।” “पर वह अम्बा नहीं है तात! वह शिखण्डी है, द्रुपद का पुत्र । महारथी शिखण्डी। वह शस्त्रधारी योद्धा है। वह आपका वध कर देगा।” भीम के मुख से जैसे अकस्मात ही निकला। “जानता हूँ।” भीष्म बोले, “तभी तो उसे कामनापूर्ति का वर दे रहा हूँ।” “यह तो आत्मवध है पितामह!” कृष्ण बोले। “नहीं! यह तो मेरी मुक्ति है वासुदेव ! स्वैच्छिक मुक्ति! मेरे पिता ने मुझे यही वर दिया था।” वे जैसे किसी और लोक से बोल रहे थे, “मैं जब कुरुवंश का नाश रोक नहीं सकता, तो इस जीवन रूपी बन्धन में बँधे रहने का प्रयोजन क्या है। मैं स्वेच्छा से मुक्त हो रहा हूँ।
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