गोत्र प्रवर्तक ऋषि संक्षिप्त परिचय : यह विडम्बना ही है कि मानव, जिसे, समाज में उसके कर्मानुसार श्रेष्ठ बौद्धि स्तर का माना जाता है, आज अपनी पौराणिक संस्कृति एवं मान्यताओं को शनैः शनैः भूलता जा रहा है। एक कारण तो अपने पैतृक पारम्परिक कार्य से मुँह मोड़ना तथा दूसरा पाश्चात्य संस्कृति का अनुसरण करना। समय के साथ चलना, प्रगति एवं विकास के लिये आवश्यक है किन्तु अपने मूल को विस्मृत करना बुद्धिमानी नहीं कहा जा सकता।

आज व्यक्ति को ये कितने स्मरण हैं, स्वयं विचार करें एवं सर्वे करें, निराशा ही हाथ लगेगी; चाहे वह शहरी व्यक्ति हो या ग्रामीण। मानसिक का तो उस समय अधिक होता है जब अवटंक/शाखा आदि व्यक्ति अपना गोत्र बताता है, जबकि गोत्र तो ऋषि का होता है, जिसकी जानकारी व्यक्ति को शनैः शनैः कम होती जा रही है। इसी क्रम में एक बात और देखी गई है कि कइयों को अपना ऋषि गोत्र तो मालूम है किन्तु उसका अपभ्रंश रूप ही उनको ज्ञात है। उदाहरणार्थ “वत्स का वच्छस या वचिस।”

अनेकानेक गोत्र प्रवर्तक ऋषियों के पौराणिक ग्रंथों में केवल नाम मात्र हैं, इनके नाम के अतिरिक्त इनके जीवन वृत्त पर अन्य कोई जानकारी न होने के कारण उनके जीवन वृत्त पर विशेष प्रकाश डालना भी एक समय है। काल-क्रम से सामग्री का लुप्त हो जाना या विकृत स्वरूप हो जाना संभव है, उस सत्य से इन्कार नहीं किया जा सकता।

फिर भी जितना बन पड़ा, गोत्र प्रवर्तक ऋषियों के जीवन वृत्त पर संक्षिप्त जानकारी कराने का प्रयत्न किया है। विस्तार भय से पौराणिक ग्रंथों में जो संदर्भ आये हैं उन्हें भी सम्बन्धित ऋषि के साथ संदर्भित कर दिया है।