Religious & Spiritual Literature
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Rajasthani Granthagar, Religious & Spiritual Literature, कहानियां
Kahawati Kathayen (Kahawaton ke sath Kathayen)
Rajasthani Granthagar, Religious & Spiritual Literature, कहानियांKahawati Kathayen (Kahawaton ke sath Kathayen)
कहावती कथाएँ (कहावतों के साथ कथाएँ) : कहावतों के महत्त्व के सम्बन्ध में अनेक बातें कही जा सकती है। यह पिछली पीढ़ियों के अनमोल अनुभवों का भण्डार है। कहावतें भाषा का श्रृंगार है, इनके प्रयोग से भाषा में सजीवता का संचार होता है। कहावतें झूठ नहीं बोलती, वे मानव के अनुभव की सन्तान है। कहावतें और मुहावरे लोगों की सम्पूर्ण सामाजिक और ऐतिहासिक अनुभूतियों के संक्षिप्त रूप है। ईसा मसीह, गौतम बुद्ध और सुविख्यात दार्शनिक अरस्तू कहावतों के प्रभाव को स्वीकार कर इनका बहुलता से प्रयोग करते थे।
प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखक श्री विजयदान देथा जी राजस्थानी साहित्य और संस्कृति के विद्वान थे और उनका यह अद्वितीय शोध ग्रन्थ अथक परिश्रम तथा गहन गम्भीर सोच का प्रतिफल है, जो भावी पीढ़ियों के लिये उपयोगी बना ही रहेगा। प्रस्तुत ग्रन्थ कहावतों के संकलन मात्र तक सीमित नहीं है। श्री विजयदान देथा ने राजस्थानी कहावतों की समाजशास्त्रीय, सांस्कृतिक साहित्यिक तथा भाषागत सारगर्भित विवेचना की है तथा कहावत से सम्बन्धित कथा का विवरण भी प्रस्तुत किया है। श्री विजयदान देथा ने कहावतों का रूपात्मक और विषयानुार वर्गीकरण कर अपने शोध ग्रन्थ को स्थाई महत्त्व प्रदान कर दिया है।SKU: n/a -
Gita Press, Hindi Books, महाभारत/कृष्णलीला/श्रीमद्भगवद्गीता
Kalyan Path
कर्तव्य-कर्म का समुचित रीति से पालन करते हुए अधिकार और फलासक्ति का त्याग कर भगवत्प्राप्ति का उद्देश्य वाला व्यक्ति स्वतः मुक्त है। स्वामी श्री रामसुखदास जी महाराज द्वारा प्रस्तुत यह पुस्तक कल्याण-पथ-पथिकों हेतु योग्य मार्गदर्शक है।
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Gita Press, Hindi Books, महाभारत/कृष्णलीला/श्रीमद्भगवद्गीता
Kanhaiya
श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध के आधार पर लिखी गयी चित्रकथा के इस भाग में भगवान् श्रीकृष्ण के जन्म से लेकर माखन-लीला तक की नौ लीलाओं का सरल भाषा में सजीव चित्रण किया गया है। कथा की भाषा-शैली इतनी सरस और रोचक है कि बाल-बृद्ध सभी लोग श्रीकृष्ण-लीला के मधुर प्रसंगों का सहज ही आनन्द उठा सकते हैं। प्रत्येक कथा के दायें पृष्ठ पर सुन्दर आर्टपेपर पर लीला से सम्बन्धित आकर्षक चित्र भी दिये गये हैं।
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Vani Prakashan, धार्मिक पात्र एवं उपन्यास, महाभारत/कृष्णलीला/श्रीमद्भगवद्गीता
Karma : Mahasamar – 3
नरेन्द्र कोहली
महासमर-3 (कर्म) की कथा युधिष्ठिर के युवराज अभिषेक के पश्चात की कथा है। इस युवराज अभिषेक के पीछे मथुरा की यादव शक्ति है। अपनी राजनीति में उलझ जाने के कारण जब यादव पाण्डवों की सहायता नहीं कर पाते, दूसरी ओर गुरु द्रोण का वरदहस्त भी पाण्डवों के सिर से हट जाता है तो दुर्योधन पाण्डवों को वारणावत में भस्म करने का षड्यन्त्र रच डालता है। वारणावत से जीवित बच कर पाण्डव पांचालों की राजधानी काम्पिल्य में पहुँचते हैं। पाण्डवों का वारणावत से काम्पिल्य पहुँचाने की योजना इस कथा खण्ड का महत्त्वपूर्ण पक्ष है। उन्हें हिडिम्ब वन से किसने निकाला? उनके काम्पिल्य तक सुरक्षित पहुँचने की व्यवस्था किसने की? और उन्हें काम्पिल्य ही क्यों लाया गया? इस संदर्भ में विदुर, कृष्ण तथा महर्षि व्यास के नाम लिये जाते हैं। लेखक का विचार है कि इस संदर्भ में तीनों की ही अपनी-अपनी भूमिका है। हमारे पाठक के मन में सदा से एक प्रश्न काँटे के समान चुभता रहा है कि एक स्त्री के पाँच पुरुषों के साथ विवाह कर दिये जाने के पीछे क्या तर्क था? उसका औचित्य क्या था? लेखक ने अपनी विशिष्ट, तथ्यपरक, तर्कसंगत शैली में इन प्रश्नों के समुचित उत्तर इस खण्ड में दिये हैं। पाण्डवों का हस्तिनापुर लौटना एक प्रकार का गृहआगमन भी है और मृत्यु के मुख में लौटना भी। किन्तु इस समय वे असहाय व भयभीत पाण्डव नहीं हैं और यादवों तथा पांचालों की सैन्य शक्ति उनके साथ है। यदि आज वे अपना अधिकार नहीं माँगेंगे तो कब माँगेंगे। पाण्डवों का सत्कार होता, किन्तु धृतराष्ट्र की योजना उन महावीर पाण्डवों को पुनः हस्तिनापुर से निष्कासित कर, खाण्डवप्रस्थ वन में फेंक देती है। भीष्म, विदुर, कृष्ण तथा व्यास के होते हुए भी पाण्डवों को हस्तिनापुर क्यों छोड़ना पड़ा?… ऐसे ही और सहज प्रश्नों का समाधान प्रस्तुत करता है यह उपन्यास।
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Hindi Books, Prabhat Prakashan, इतिहास, धार्मिक पात्र एवं उपन्यास
Karma Hi Dharma Hai
जीवन का औचित्य ही है-अपना और दूसरों का कल्याण करना, खुद के सपनों को साकार करना, जरूरतमंदों के काम आना | अतः कर्म करें और कर्म से भागें नहीं | कर्म ही धर्म है | धर्म का अर्थ ही है-जो धारण करने योग्य हो और जिसे धारण करने से मानव तथा अन्य प्राणियों का कल्याण हो | अतः कर्म करने के पूर्व सोचें-समझें, विचोरें, तदुपरांत कर्म करें, ताकि किसी को हानि न पहुँचे | कर्म ही पूजा है, और पूजा का अर्थ है-अपने कर्तव्य के प्रति पूरी आस्था, निष्ठा एवं समर्पण का भाव रखना | कर्म हमारी पहचान है और कर्म ही हमें महान् बनाता है ।
एक चेतनशील प्राणी होने के नाते यह महत्त्वपूर्ण है कि हम क्या करें? और “क्या नहीं करें? को पहले सुनिश्चित करें | मनुष्य के जीवन में सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय, सफलता-विफलता, पाप-प्रुण्य आदि का निर्धारण कर्म के आधार पर होता है। अतः फल-प्राप्ति की नहीं, कर्म की चिंता करें | कर्म करना आपके वश में है, परंतु फल आपके हाथ में नहीं है | कहने का आशय स्पष्ट है कि हम जैसा कर्म करते हैं और जिस नीयत से करते हैं, उसका प्रभाव उसी रूप में हमारे तन, मन और वाणी पर पड़ता है। प्रस्तुत पुस्तक में सुखी एवं दीर्घायु जीवन जीने के 90 सीक्रेट्स दिए गए हैं, जिनको अपनाकर पाठक अपने जीवन को सफल और सुखी बना सकते हैं |”SKU: n/a -
Prabhat Prakashan, Religious & Spiritual Literature
Karmayog (PB)
कर्म शब्द ‘कृ’ धातु से निकला है; ‘कृ’ धातु का अर्थ है—करना। जो कुछ किया जाता है, वही कर्म है। इस शब्द का पारिभाषिक अर्थ ‘कर्मफल’ भी होता है। दार्शनिक दृष्टि से यदि देखा जाए, तो इसका अर्थ कभी-कभी वे फल होते हैं, जिनका कारण हमारे पूर्व कर्म रहते हैं। परंतु कर्मयोग में कर्म शब्द से हमारा मतलब केवल कार्य ही है। मानवजाति का चरम लक्ष्य ज्ञानलाभ है। प्राच्य दर्शनशास्त्र हमारे सम्मुख एकमात्र यही लक्ष्य रखता है। मनुष्य का अंतिम ध्येय सुख नहीं वरन् ज्ञान है; क्योंकि सुख और आनंद का तो एक न एक दिन अंत हो ही जाता है। अतः यह मान लेना कि सुख ही चरम लक्ष्य है, मनुष्य की भारी भूल है। संसार में सब दुःखों का मूल यही है कि मनुष्य अज्ञानवश यह समझ बैठता है कि सुख ही उसका चरम लक्ष्य है। पर कुछ समय के बाद मनुष्य को यह बोध होता है कि जिसकी ओर वह जा रहा है, वह सुख नहीं वरन् ज्ञान है, तथा सुख और दुःख दोनों ही महान् शिक्षक हैं, और जितनी शिक्षा उसे सुख से मिलती है, उतनी ही दुःख से भी। सुख और दुःख ज्यों-ज्यों आत्मा पर से होकर जाते रहते हैं, त्यों-त्यों वे उसके ऊपर अनेक प्रकार के चित्र अंकित करते जाते हैं।
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Prabhat Prakashan, Suggested Books, इतिहास, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण, धार्मिक पात्र एवं उपन्यास
Karna Ki Atmakatha (HB)
-15%Prabhat Prakashan, Suggested Books, इतिहास, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण, धार्मिक पात्र एवं उपन्यासKarna Ki Atmakatha (HB)
‘यही तो विडंबना है कि तू सूर्यपुत्र होकर भी स्वयं को सूतपुत्र समझता है, राधेय समझता है; किंतु तू है वास्तव में कौंतेय। तेरी मां कुंती है।” इतना कहकर वह रहस्यमय हंसी हंसने लगा। थोड़ी देर बाद उसने कुछ संकेतों और कुछ शब्दों के माध्यम से मेरे जन्म की कथा बताई।
”मुझे विस्वास नहीं होता, माधव!” मैंने कहा। ”मैं समझ रहा था कि तुम विस्वास नहीं कसेगे। किंतु यह भलीभाति जानी कि कृष्ण राजनीतिक हो सकता है, पर अविश्वस्त नहीं। ”उसने अपनी मायत्वी हँसी में घोलकर एक रहस्यमय पहेली मुझे पिलानी चाही, चो सरलता से मेरे गले के नीचे उतर नहीं रही थी। वह अपने प्रभावी स्वर में बोलता गया, ”तुम कुंतीपुत्र हो। यह उतना ही सत्य है जितना यह कहना कि इस समय दिन है, जितना यह कहना कि मनुष्य मरणधर्मा है, जितना यह कहना कि विजय अन्याय की नहीं बल्कि न्याय की होती है।”
”तो क्या मैं क्षत्रिय हूँ?” एक संशय मेरे मन में अँगड़ाई लेने लगा, ‘आचार्य परशुराम ने भी तो कहा था कि भगवान् भूल नहीं कर सकता। तू कहीं-न- कहीं मूल में क्षत्रिय है। जब लोगों ने सूतपुत्र कहकर मेरा अपमान क्यों किया?’ मेरा मनस्ताप मुखरित हुआ, ”जब मैं कुंतीपुत्र था तो संसार ने मुझे सूतपुत्र कहकर मेरी भर्त्सना क्यों की?”
”यह तुम संसार से पूछो। ”हँसते हुए कृष्ण ने उत्तर दिया।
”और जब संसार मेरी भर्त्सना कर रहा था तब कुंती ने उसका विरोध क्यों नहीं किया?”SKU: n/a -
Vishwavidyalaya Prakashan, संतों का जीवन चरित व वाणियां
Kashi Ke Vidyaratna Sanyasi [PB]
काशीस्थ मनीषियों ने वेदान्त के प्रसार तथा प्रचार के निमित्त जो कार्य किया, वह वेदान्त के इतिहास में स्वर्णाक्षरों से अंकित करने योग्य है। तथ्य तो यह है कि वेदान्त की सार्वभौम मौलिक रचनाओं के निमित्त दार्शनिक समाज काशी के विद्वानों का चिरऋणी रहेगा। इस अभिनव प्रयास में विरक्त संन्यासियों तथा अनुरक्त गृहस्थों, दोनों का स?िमलित योगदान सदैव श्लाघनीय तथा स्मरणीय रहेगा। विद्वान् संन्यासियों के रचनाकलाप का अनुशीलन करने से एक विशिष्ट तथ्य की अभिव्यक्ति होती है और वह है ज्ञानमार्गी ग्रन्थों के प्रणयन के साथ ही भक्तिमार्गी ग्रन्थों का निर्माण। आदि शङ्कïराचार्य ने काशी को अपनी कर्मस्थली बनाकर उसे गौरव ही प्रदान नहीं किया, अपितु उस प्राचीन पर?परा का भी अनुसरण किया जो विद्वानों से अपने सिद्धान्तों के परीक्षण तथा समीक्षण के लिए काशी में आने के लिए आग्रह करती थी। काशीस्थ विद्वानों का अद्वैत के प्रति दृढ़ आग्रह और अद्वैतविषयक ग्रन्थों के प्रणयन के प्रति नैसॢगक निष्ठा बोधग?य है। यहाँ विशिष्ट वेदान्त-तत्त्वज्ञ संन्यासियोंं का ही संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है—श्री गौड़ स्वामी, श्री तैलंग स्वामी, स्वामी भास्करानन्द सरस्वती, स्वामी मधुसूदन सरस्वती, श्री देवतीर्थ स्वामी, स्वामी महादेवाश्रम, स्वामी विशुद्धानन्द सरस्वती, स्वामी ज्ञानानन्द, स्वामी करपात्रीजी, दतिया के स्वामीजी, स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती। ‘अद्वैतसिद्धि’ के प्रणेता श्री मधुसूदन सरस्वती एक साथ ही प्रौढ़ दार्शनिक तथा सहृदय भक्त दोनों थे। ‘अद्वैतसिद्धि’ जैसे प्रमेयबहुल ताॢकक ग्रन्थ के निर्माण का श्रेय जहाँ उन्हें प्राप्त है, वहीं ‘भक्तिरसायन’ जैसे भक्तिरस के प्रतिष्ठापक ग्रन्थ की रचना का गौरव भी उन्हें उपलब्ध है। चतुर्दशशती के वेदान्तज्ञ संन्यासियों में स्वामी ज्ञानानन्द का विशिष्ट स्थान था। आज भी करपात्रीजी महाराज की, जहाँ कट्टïर अद्वैत के प्रतिपादन में ताॢकक बुद्धि का विलास मिलता है, वहीं ‘रासपञ्चाध्यायी’ के विशद अनुशीलन में तथा ‘भक्तिरसार्णव’ जैसे भक्तिरस के संस्थापक ग्रन्थ के निर्माण में उनका भक्तिरसाप्लुत स्निग्ध हृदय भी अभिव्यक्त होता है। काशी के अद्वैती संन्यासियों की यह परमपरा आज भी जागरूक है।
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Hindi Books, Prabhat Prakashan, अध्यात्म की अन्य पुस्तकें
Kashi Ki Golakdhandhari
गोपाल राम गहमरी हिंदी के पहले जासूसी कथाकार थे। उन्होंने हिंदी कथा को कल्पना, रहस्य-रोमांच, चमत्कार, ऐयारी से हटाकर जमीनी धरातल प्रदान किया। जीवन, घटनाएँ, अपराध, रोजमर्रा की जिंदगी की समस्याओं को वे कथा-जगत में लेकर आए। कथा के माध्यम से जीवन की जीवंत कहानियाँ उन्होंने पेश कीं। वे न केवल उम्दा कथाकार थे, बल्कि संपादक, कविता में खड़ी बोली के हिमायती भी थे। उनके संस्मरणों में हिंदी साहित्य के बनते इतिहास को पढ़ सकते हैं। हिंदी की पहली आलोचना पत्रिका ‘समालोचक’ का संपादन उन्होंने सन 1902 में किया। उनकी कहानियाँ अपने भूगोल और विषय के साथ भाषा का बर्ताव करती हैं। हिंदी, उर्दू, अरबी, फारसी, संस्कृत, बांग्ला भाषा में वे समर्थ थे। बांग्ला से ढेरों उपन्यासों का अनुवाद किया। मंडला नरेश के साथ श्रीलंका की यात्रा की और यात्रा-वृत्तांत भी लिखा। आइए, उनकी इन कहानियों से गुजरें, जो आज से सौ साल पहले लिखी गई थीं।
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Akshaya Prakashan, English Books, Religious & Spiritual Literature, इतिहास
Kashmir the land of Rishis
-11%Akshaya Prakashan, English Books, Religious & Spiritual Literature, इतिहासKashmir the land of Rishis
Kashmir is called the Garden of Rishis (Reshiver). Kashyapa Rishi, considered the founder of Kashmir mandala, is one of the Saptrishis mentioned in the Rig Veda. He is considered to be the Prajapati or progenitor of mankind. The pristine nature of Kashmir nurtured a host of sages or rishis in its bosom like Bharat Muni, Utpaladeva, Panini and many others who carry the credit of making Kashmir the land of Vedic knowledge and the ancient centre of learning. The rishi tradition in Kashmir has been very powerful and continued to be inherited by the Hindus of the valley until the advent of Islam in the 14th century.
Rajatarangini, the celebrated history of ancient Kashmir brought down up to CE 1149, gives excellent account of the impact of Rishi teachings on the people of the land, the foremost of which was non-violence and peaceful coexistence. Rishi teachings and their lives were the role model for the people of ancient Kashmir to be tied down to the unwritten constitution of nature which means that their teachings had gone into the blood and become part of entire social structure. The fact is that the teachings of those rishis can be called the foundation on which the huge edifice of Kashmiriyat was raised.
The advent of the Islamic faith in Kashmir through the Muslim missionaries of Iran and Central Asia is a unique phenomenon in the history of mankind. Firstly, the entire basis of the religion brought from Arabia was in no way similar to those that had flourished in Kashmir for centuries. Secondly, the tribal culture which had shaped the religious construct of the Muhammadans was fully alien to the culture of the people in ancient Kashmir. Thirdly, and very significantly, the Iranian or Central Asian missionaries who brought the Islamic faith to Kashmir were the progeny of proselytised ancestors of Aryan stock and not of Semitic stock. Psychologists and anthropologists tell us that a society entirely converting to a new faith, for whatever reasons, generally panders to extremism in the new faith just because either it wants to convince the conqueror of its faithfulness to the new civilization or vies with the conqueror to prove that he is a better adherent to the new faith brought to him. This is exemplified by the animus and hatred which today’s Iran nurses against the Israelis.
This is a book in which, the author has inserted photographs of numerous temples, shrines (asthapans), viharas, stupas, ponds, water bodies, hillocks, structures etc. most of these in dilapidated condition owing to the vagaries of weather and eccentricities of human nature. The author has visited most of these places personally and described how arduous journeys he had to undertake to get their photographs and make a small note culled out from books of history or from the stories collected from the local elders who have inherited the stories from their elders. Being a retired military officer, he thankfully acknowledges the logistic support he received from his friends in the services and which helped him immensely in writing this account.SKU: n/a -
Chaukhamba Prakashan, Hindi Books, अध्यात्म की अन्य पुस्तकें, इतिहास
Katha Kusum Saurabham
Kathākusumasaurabham the ninth book by Nityānanda Miśra, a well-known Sanskrit scholar and author. The book teaches introductory Sanskrit the practical way: through short stories in Sanskrit with their Hindi and English word-for-word meanings and translations and a Sanskrit commentary. The stories chosen for the book are the 25 stories (most of them fables) in the work Kathākusumam (“the flower of stories”) of Pandit Ambikādatta Vyāsa (1858–1900). The Kathākusumasaurabham (“the fragrance of the flower of stories”) presents the 25 stories in the Kathākusumam with 9 fragrances. Āmodaḥ (“a very far-reaching fragrance”) offers word-for-word Hindi translation. Suvāsaḥ (“an agreeable fragrance”) presents Hindi prose translation. Gandhasāraḥ (“the essence of a perfume”, also a word for sandalwood) presents the essence of the story through a popular Hindi verse, aphorism or proverb. Samākarṣī (“a far-spreading fragrance”) offers word-for-word English translation. Nirhārī (“a diffusive fragrance”) has the English prose translation. Mahakkaḥ (“a wide spreading fragrance”) presents the essence of story as an English proverb or aphorism. Parimalaḥ (“an enchanting fragrance”) is the Sanskrit commentary on the story. Adhivāsaḥ (“a superior fragrance”, also a word for application of perfumes) presents the essence of the story using a Sanskrit quote or subhāṣita. Ghrāṇatarpaṇaḥ (“a nose-satisfying fragrance”) has versified summary of the story by Pandit Maheśa Jhā. In addition to the nine fragrances, each chapter has a Gandhasaṃskāraḥ (“education of fragrances”) section, which introduces the reader to inflections and conjugations of an example word and an example root from the story, and a Ghrāṇaparīkṣā (“the smelling test”) section, which has exercises that test the reader’s understanding. Each story has an illustration to pique the interest of young learners. Foreword by Prof. Radhavallabh Tripathi (in Hindi), Prof. Madhav Deshpande (in English), Prof. Balram Shukla(in Sanskrit).
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Gita Press, वेद/उपनिषद/ब्राह्मण/पुराण/स्मृति
Kenopanishad
सामवेदीय तलवकार ब्राह्मण के अन्तर्गत वर्णित इस उपनिषद में भगवान के स्वरूप और प्रभाव-वर्णन के साथ परमार्थ ज्ञान की अनिर्वचनीयता, अभेदोपासना तथा यक्षोपाख्यान में भगवान का सर्वप्रेरकत्व एवं सर्वकर्तृत्व स्वरूप दर्शनीय है। सानुवाद शांकरभाष्य।
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Hindi Books, Rajasthani Granthagar, इतिहास, धार्मिक पात्र एवं उपन्यास
Khatu Shyam Ji ka Itihas
खाटु श्याम जी का इतिहास : राजस्थान में कई मन्दिर प्रसिद्ध हैं। नाथद्वारा में श्री नाथजी, जयपुर में गोविन्ददेवजी, मेहन्दीपुर के बालाजी, सालासर के बालाजी की जैसे सर्वत्र प्रसिद्धि हैं। उसी प्रकार शेखावाटी अंचल में खाटू श्यामजी की मान्यता व्यापक है। सीकर जिले में खाटू ग्राम सीकर से 48 कि.मी. रींगस से 16 कि.मी. तथा दांता रामगढ़ से 30 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। यहां भगवान श्री कृष्ण के ही स्वरूप श्याम जी का मन्दिर है, जिससे यह खाटू श्यामजी अथवा खाटू श्यामजी के नाम से प्रसिद्ध है। इस विग्रह और मन्दिर के सम्बन्ध में महाभारत की कथा का उल्लेख किया गया है कि श्री कृष्ण ने ब्राह्मण का रूप धारण कर भीम के पौत्र और घटोत्कच के पुत्र बर्बरीक का मस्तक मांग लिया था। फिर उसको एक पर्वत शिखर पर स्थित कर दिया, जहां से उसने सम्पूर्ण महाभारत के युद्ध का अवलोकन किया। तदन्तर भगवान श्री कृष्ण ने ही प्रसन्न होकर उसको वरदान दिया कि वह कलियुग में उन्हीं के ‘श्याम’ नाम से विख्यात और पूजित होगा। वही श्यामजी उक्त खाटू ग्राम में प्रतिष्ठित है और ‘खाटू श्यामजी’ नाम से विख्यात है। सुप्रसिद्ध पत्रकार, साहित्य मनीषी और संशोधक स्वर्गीय पं. झाबरमल्ल शर्मा ने शोध करके प्रथम बार खाटू श्यामजी का इतिहास लिखा तथा इसके साथ उनसे सम्बन्धित साहित्य का प्रकाशन भी किया है, जिससे पुस्तक की उपायदेता बढ़ गई है और श्याम भक्त इससे लाभान्वित होंगे।
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