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Hindi Books, Lokbharti Prakashan, इतिहास
Prayagraj Aur Kumbh: Sanskritik Vaibhav Ki Abhinav Gatha
-10%Hindi Books, Lokbharti Prakashan, इतिहासPrayagraj Aur Kumbh: Sanskritik Vaibhav Ki Abhinav Gatha
प्रयागराज और कुम्भ : सांस्कितक वैभव की अभिनव गाथा
प्रयागराज को तीर्थराज कहा गया है। यह भारत का सर्वप्रमुख सांस्कृतिक केन्द्र होने के साथ ही भारतीय सात्त्विकता का सर्वोत्तम प्रतीक भी है। यह हिन्दू-आस्था का एक महान केन्द्र तो है ही, यह हमारे देश की धार्मिक और आध्यात्मिक चेतना का केन्द्रबिन्दु भी है। प्रयागराज के माहात्म्य का विस्तृत वर्णन मत्स्य, पद्म और कूर्म पुराण के कई अध्यायों में मिलता है।
कुम्भ के दौरान संगम तीर्थ पर एक स्नान-दिवस पर भक्तिभाव से कई बार इतने लोग जमा हो जाते हैं कि उनकी संख्या दुनिया के कई देशों की कुल जनसंख्या से भी अधिक होती है। उन श्रद्धालुओं को कभी कोई निमंत्रण नहीं देता, वे श्रद्धा और भक्ति की एक अदृश्य डोर में बँधकर वहाँ खिंचे चले आते हैं। हमारी सनातन सस्कृति का यह चुम्बकीय आकर्षण अनादिकाल से यथावत् बना हुआ है। श्रद्धा और आस्था का यह आवेग सदियों से चली आ रही हमारी परम्परा का हिस्सा है। यह परम्परा हमें अपनी मूल संस्कृति से जोड़े रखने के साथ ही सांस्कृतिक एकीकरण का पथ भी प्रशस्त करती है। स्वाभाविक रूप से प्रयागराज और कुम्भ के गौरवशाली इतिहास के बारे में जानना-समझना एक सुखद अनुभूति है।
बहरहाल, अभिलेखीय और साहित्यिक स्रोतों के आधार पर प्रयागराज और कुम्भ के गौरवशाली इतिहास को इस पुस्तक में बहुत ही सरस ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इसमें प्रामाणिकता और रोचकता का मणि-कांचन संयोग है। यह पुस्तक हमारे देश के सांस्कृतिक वैभव की एक अभिनव गाथा लेकर आई है।
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Rajpal and Sons, अन्य कथा साहित्य
Prem Kya Hai, Akelapan Kya Hai
जिसे हम प्रेम कहते-समझते हैं, क्या वह सच में प्रेम है? क्या अकेलेपन की वास्तविक प्रकृति वही है जिसका अनुमान हमें डराता है और हम उससे दूर भागते रहते हैं, और इस कारण जीवन में कभी भी उस एहसास से हमारी सीधे-सीधे मुलाकात नहीं हो पाती? दैनिक जीवन के निकष पर इन दो सर्वाधिक आवृत प्रतीतियों के अनावरण का सफर है: ‘प्रेम क्या है? अकेलापन क्या है?’ जे. कृष्णमूर्ति के शब्दों में अधिष्ठित निःशब्द से रहस्यों के धुँधलके सहज ही छँटते चलते हैं, और जीवन की उजास में उसकी स्पष्टता सुव्यक्त होती जाती है। ‘मन जब किसी भी तरकीब का सहारा लेकर पलायन न कर रहा हो, केवल तभी उसके लिए उस चीज़ के साथ सीधे-सीधे संपर्क-संस्पर्श में होना संभव है जिसे हम अकेलापन कहते हैं, अकेला होना। किंतु, किसी चीज़ के साथ संस्पर्श में होने के लिए आवश्यक है कि उसके प्रति आपका स्नेह हो, प्रेम हो।’
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Gita Press
Prem Yog
प्रेम मानव-भावना का सर्वोत्कृष्ट परिचय है। जगत में परमात्मा के वास्तविक स्वरुप का परिचय प्रेम ही है। प्रस्तुत पुस्तक श्री वियोगी हरि जी के द्वारा प्रणीत हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, प्रायः सभी धर्मावलिम्बयों के प्रेम-सम्बन्धी सूक्तियों के आधार पर एक सरस एवं स्वस्थ आलोचनात्मक व्याख्या है। मोह और प्रेम, प्रेम का अधिकारी, लौकिक से पारलौकिक प्रेम, प्रेम में अनन्यता, दास्य, वात्सल्य, सख्य प्रेम आदि विविध विषयों की सुन्दर व्याख्या के रूप में यह पुस्तक नित्य पठनीय एवं संग्रहणीय है।
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Prabhat Prakashan, Religious & Spiritual Literature
Premyog (PB)
संसार में यह एक प्रेरक शक्ति है। मनुष्य जैसें -जैसें उन्नत्ति करता जायेगा, वैसें वैसें विवेक और प्रेम उसके जीवन में आदर्श बनते जायेंगे। भक्ति को अपना सर्वोच्च आदर्श बनाना चाहिए तथा संसार और इंद्रियों से धीरे धीरे अपना रास्ता बनाते हुए हमें ईश्वर तक पहुचना है अथार्थ् भक्ति, भक्त और भगवान तीनों एक है।
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Rajpal and Sons, प्रेरणादायी पुस्तकें (Motivational books)
Prernatmak Vichar
विश्वभर में गुरुदेव के नाम से विख्यात रवीन्द्रनाथ टैगोर कवि, लेखक और चित्रकार होने के साथ-साथ दार्शनिक और विचारक भी थे। वह सही मायनों में पूर्वी और पश्चिमी संस्कृति के अद्भुत संगम थे। अपने काव्य-संग्रह ‘गीतांजलि’ के लिए नोबेल पुरस्कार पाने वाले वह पहले भारतीय थे। इस प्रेरणात्मक पुस्तक में दिए गए टैगोर के विचार उनकी गहन अंतर्दृष्टि और संवेदनशीलता की झलक प्रस्तुत करते हैं।
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English Books, Rajasthani Granthagar, इतिहास, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरण
Prithviraj Chauhan and His Times
-15%English Books, Rajasthani Granthagar, इतिहास, जीवनी/आत्मकथा/संस्मरणPrithviraj Chauhan and His Times
Prithviraj Chauhan and His Times : My aim in writing this book is to study the struggle of Prithviraj Chauhan III against the Turks and to highlight the cultural activities of that period. The scholars stress exclusively on the chronicles of the Muslim-Court annalists who familiarized us with the invader’s version of conquest. The heroic resistance offered by the Chauhan rulers and other Rajputs residing on the border areas has not so far been studied in correct perspective. The Goverdhan and other memorial inscriptions are very important. These were engraved in order to commemorate the heroic deeds of those brave persons, who gave away their lives while fighting against the invaders in order to rescue “cows women and religious shrines”. good number of such inscriptions are still available on the border areas of Rajasthan. I have utilised some of these inscriptions for the first time.
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Hindi Books, Rajasthani Granthagar, इतिहास
Prithviraj Raso Set Of 4
पृथ्वीराज रासो
महाकवि चन्द बरदाई कृत
रासो साहित्य में महाकवि चन्द बरदाई कृत पृथ्वीराज रासो सर्वश्रेष्ठ काव्य रचना है। उसके लिये यह कहना उचित ही होगा कि उसका स्वरूप समय-समय पर परिवर्द्धित होता रहा है, जिससे भाषा के आधार पर उसके रचनाकाल का निर्णय करने में अनेक उलझने उत्पन्न होती है। इतना होते हुए भी काव्य की दृष्टि से वह बहुत ही प्रौढ़ रचना है। ऐसे महत्त्वपूर्ण महाकाव्य का अनुवाद और संपादन का कार्य कविराव मोहनसिंह जैसे विद्वत व्यक्तित्व वाला व्यक्ति ही कर सकता था। कविराव मोहनसिंह ने न केवल ग्रंथ का संपादन किया बल्कि शब्दार्थ तथा हिन्दी अनुवाद कर ग्रंथ को आम पाठकों तक चार खण्डों में सुलभ कराया। Prithviraj Chauhan, Rajput (Prithviraj Raso Chand Bardai)
इस पुस्तक को पढ़ने में चौहान जाति को अपने पूर्वजों के कृत्यों पर गौरव का अनुभव होगा, अन्य लोगों को भी चौहान जाति को जानने का मौका मिलेगा।
in fact उल्लेखनीय है कि आज भी गजनी शहर में बादशाह गौरी की कब्र के साथ सम्राट पृथ्वीराज तथा कवि चंद बरदाई की समाधियाँ मौजूद है, जो उस ऐतिहासिक घटना की मूक गवाह हैं।
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Hindi Books, Rajasthani Granthagar, इतिहास
Prithviraj Vijay Mahakavyam
महाकवि श्रीजयानक रचित : पृथ्वीराजविजयमहाकाव्यम् (हिन्दी) : संस्कृत भाषा में विरचित जीवनीपरक ऐतिहासिक महाकाव्यों की श्रृंखला में काश्मीर निवासी महाकवि श्री जयानक द्वारा प्रणीत पृथ्वीराजविजय महाकाव्यम् शीर्षक ग्रन्थ अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। भूर्जपत्र पर लिखित इस ग्रंथ की पाण्डुलिपि की पहली खोज डॉ. जी. बूह्लर द्वारा सन् 1876 में की गई थी, जब वे संस्कृत की प्राचीन पाण्डुलिपियों का पता लगाने के लिए काश्मीर गये थे। उन्होंने तत्सम्बद्ध सम्पूर्ण सामग्री ‘डेक्कन कॉलेज, पुना’ को सुपुर्द कर दी, जिनका विवरण उस कॉलेज की सन् 1875-76 की 150वीं संख्या पर उल्लिखित है। डॉ. बूह्लर ने अपनी शोधयात्रा का विस्तृत प्रतिवेदन प्रस्तुत करते समय इस बात पर हार्दिक दुःख प्रकट किया है कि संस्कृत के अमर ग्रन्थों की पाण्डुलिपियों की वर्तमान दुर्दशा निस्संदेह हमारे लिए दुर्भाग्य की सूचक है।
डॉ. बूह्लर की समग्र रिपोर्ट का गम्भीर अध्ययन करने के पश्चात् स्वर्गीय पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने और पूर्वतः म.म.पं. गौरीशंकर ओझा ने तदनंतर ‘पृथ्वीराजविजय महाकाव्य’ का सुसम्पादित संस्करण वि. संवत् 1995 में वैदिक यंत्रालय, अजमेर से प्रकाशित कराया, जिसमें जोनराज विरचित ‘विवरणोपेत टीका’ भी जोड़ दी गई थी। इस प्रकार यह ग्रंथ साहित्यप्रेमीयों और इतिहासविदों के समक्ष प्रथम बार आ सका, जो इस समय पर लुप्तप्राय सा हो चुका है। उसे पुनः प्रकाशित करने के उद्देश्य से ही हमने पुनर्मुद्रण का यह उपक्रम किया है।
‘पृथ्वीराज विजय महाकाव्य’ प्रथमवार हिन्दी भावानुवाद के साथ प्रकाशित किया जा रहा है। इस महाग्रन्थ का प्रामाणिक अनुवाद किया है, संस्कृत के ख्यातिप्राप्त अनुवादक एवं अधिकारी विद्वान प्रो. पं. मदनमोहन शर्मा (शाण्डिल्य) ने, जिससे यह ग्रन्थ अध्येताओं के लिए और अधिक उपयोगी हो गया है। डॉ. ओझा ने पुस्तक के ‘आमुख’ में ऐसे अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्य उद्घाटित किये हैं, जिनसे इस महाकाव्य की महत्ता और उपयोगिता प्रकट होती है।SKU: n/a -
Vani Prakashan, उपन्यास
PRITHWIVALLABHA
प्रख्यात गुजराती साहित्यकार कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी रचित ‘पृथ्वीवल्लभ’ एक ऐतिहासिक उपन्यास है। इसका समय दसवीं सदी ईस्वी का अन्तिम दशक-994 ई.-है। यह वह समय है जब आन्ध्र प्रदेश के मान्यखेट को केन्द्र बनाकर चालुक्यवंशी तैलप अपना विशाल साम्राज्य खड़ा करने के लिए जी-जान से जुटा था और इधर ‘पृथ्वीवल्लभ’ के विरुद से विभूषित परमारवंशी मुंज अवंती को केन्द्र बनाकर मालव साम्राज्य खड़ा करने के लिए प्रयत्नशील था। स्वाभाविक ही दोनों सामन्तों का टकराव होना था और वह हुआ। तैलप की समस्या यह थी कि चोल, चेदि, पांचाल और राष्ट्रकूट राजाओं को अपने अधीन करके तथा गुजरात तक साम्राज्य विस्तार करके भी वह मालवराज मुंज को दबा नहीं पा रहा था। सोलह बार उसे मुंज से पराजित होना पड़ा था। किन्तु सत्रहवीं बार?…इतिहास में किसी ‘किन्तु का कोई सीधा उत्तर नहीं होता। युद्धक्षेत्रों, राजमार्गों, कारागारों, सुरंगों के रास्ते महत्वाकांक्षाएँ परस्पर टकराती हैं, दुरभिसंधियाँ, प्रतिशोध, प्रेम और घृणा जैसी मानवीय प्रवृत्तियाँ अपने विविध रूप दिखाती हैं। कभी प्रेम की विजय होती है और कभी घृणा से आवेष्ठित महत्वाकांक्षा की। इतिहास चक्र इसी तरह गतिमान रहता है। कलेवर में छोटा दिखते हुए भी प्रस्तुत उपन्यास ‘पृथ्वीवल्लभ’ नानारूप मानवचरित्रों और स्वभाव-छवियों को उनकी सम्पूर्ण सम्भावनाओं के साथ प्रस्तुत करता हुआ एक अद्भुत-रोमांचक इतिहास रस की सृष्टि करता है। पृथ्वीवल्लभ’ की लोकप्रियता से प्रेरित होकर, अपने समय के मशहूर फ़िल्मकार सोहराब मोदी ने, 1950 के आसपास, इस पर आधारित इसी नाम से एक फ़िल्म बनाई थी।
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